इक्कीसवीं सदी के स्वास्थ्य साधना सिद्धांत

रोग के लक्षण को दवा द्वारा दबा देना ही आज का औषधोपचार है। शरीर में बार-बार दवा के प्रयोग से रोग व्याधियों का मंदिर बन जाता है और सारे रोग एक साथ मिलकर असाध्य बन जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा दर्शन में मन, शरीर, आत्मा का घनिष्ठ संबंध माना गया है। इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा दर्शन में रोगी शरीर के अलावा उसके दूषित मन एवं निर्बल आत्मा तीनों की एक साथ चिकित्सा होती है।

स्वास्थ्य को बनाये रखना एक चुनौतीपूर्ण काम है। इस चुनौती को समझने की जरूरत है। जीवन जीने की कला को समझकर स्वास्थ्य को बनाये रखा जा सकता है।

कारण एक तो निवारण भी एक : शरीर में जीवन शक्ति व विजातीय द्रव्य की मात्रा व क्षमता के आधार पर ही रोग घटते बढ़ते रहते हैं, एक घर या एक परिवार के लोगों को एक ही प्रकार के रोग नहीं होते, अलग-अलग होते हैं, जबकि सभी का आहार-विहार लगभग समान है। प्राकृतिक चिकित्सा में शरीर के विजातीय द्रव्य निकालने और जीवनी शक्ति को बढ़ाने के लिए उपवास, जलोपचार, मृदा चिकित्सा, मालिश, भाप स्नान, एनिमा आदि अनेक साधनाएं करायी जाती हैं।

रोग का कारण कीटाणु नहीं : रोग का कारण विजातीय द्रव्य होते हैं, कीटाणु नहीं। प्राकृतिक चिकित्सा के वैज्ञानिाकों ने कैंसर, टीबी आदि के रोगाणुओं को घोलकर पिया है और यह सिद्ध किया है कि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता यदि पर्याप्त है तो रोग हो ही नहीं सकता।

तीव्र रोग, शत्रु नहीं मित्र होते हैं : रोगों को तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। ये सभी दवाओं के कारण होते हैं। सर्दी-जुकाम, खांसी, बुखार, चेचक, दस्त आदि की दवा लेने से जीर्ण रोग होते हैं। जीर्ण रोग को दबाते-दबाते वह मारक रोग में बदल जाता है; जैसे गठिया, श्वास, दमा, एचबीपी आदि। ऐसे ही फोड़े-फुंसी को दबाने से कैंसर और टीबी होता है। कुछ साधकों ने लिखा है कि ज्यों-ज्यों दवा ली, त्यों-त्यों रोग बढ़ता गया। किसी लेखक ने तीव्र रोग को आमंत्रित करने के लिए एक नारा दिया कि तुम मुझे बुखार दो, मैं तुम्हें ठीक कर दूंगा। किसी कचरे को जलाने के लिए खरपतवार इकट्ठा करके जगह को साफ-शुद्ध किया जाता है, उसी तरह शरीर भी बुखार के जरिये शरीर के विजातीय द्रव्य को नष्ट कर शरीर के अंदर की सफाई करता है। शरीर को रोगमुक्त कर जीवनी शक्ति बढ़ाता है।

प्रकृति स्वयं चिकित्सक है : प्रकृति सबको विशेष जीवनी शक्ति प्रदान करती है, जो किसी भी रोग को ठीक करने में सक्षम है। प्रकृति उल्टी, दस्त, मलमूत्र, पसीने आदि के द्वारा विकार को बाहर निकालकर शरीर को स्वस्थ कर देती है।

चिकित्सा रोगी की नहीं, पूरे शरीर की होती है : जिस प्रकार समय-समय पर गाड़ियों की सर्विसिंग की जाती है, आइल, ग्रीसिंग की जाती है, उसी प्रकार किसी एक रोग का इलाज करने पर पूरे शरीर की शुद्धि हो जाती है। शरीरिक शुद्धि से रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि हो जाती है। यह पूरी चिकित्सा साधक की क्षमता व विश्वास पर कार्य करती है।

रोग निदान की विशेष आवश्यकता नहीं: आज भी वैज्ञानिक प्रकृति और परमात्मा के गूढ़ रहस्यों का पूर्णरूपेण पता लगाने में अक्षम हैं। इसके विपरीत प्राकृतिक चिकित्सक अपनी सूझबूझ से जांच-परख कर रोग के कारण को ढूंढ़ता है। प्रकृति प्रदत्त साधनों से साधकों के शरीर से विजातीय द्रव्य बाहर निकालने का प्रयास करता है। जिस प्रकार पावर हाउस से लाइन सप्लाई होती है, उसी प्रकार अपना पेट पावर हाउस होता है, उसमें जैसा अन्न, जल देंगे, वैसा ही रस-रक्त प्रवाहित होगा।

जीर्ण रोग में समय लगना स्वाभाविक है : प्राकृतिक चिकित्सा साधना में अधिकांश साधक निराश एवं असाध्य होकर आते हैं। ये विजातीय द्रव्य अनेक वर्षों में एकत्रित होते हैं। दवाइयों, अप्राकृतिक आहार-विहार, पर्यावरण, असंयमित, अनियमित और अनियंत्रित जीवन से व्याधि-विकार आते हैं। ऐसे लक्षण व रोग को ठीक होने में समय लगना स्वाभाविक है। माना गया है कि जितने वर्ष पुराना रोग होगा, उतने ही माह ठीक होने में लगेंगे। जीर्ण रोग, तीव्र रोग के रूप में आकर धीरे-धीरे क्रमश: ठीक होते हैं। इस प्रणाली में दृढ़ इच्छा शक्ति, धैर्य और सहन शक्ति ही शरीर को निरोग करती है।

प्राकृतिक चिकित्सा में दबे रोग उभरते हैं : रोग के लक्षण को दवा द्वारा दबा देना ही आज का औषधोपचार है। शरीर में बार-बार दवा के प्रयोग से रोग व्याधियों का मंदिर बन जाता है और सारे रोग एक साथ मिलकर असाध्य बन जाते हैं। सबसे बड़ी शक्ति हमारे अपने शरीर में होती है। प्रारंभिक लक्षण कब्ज, सर्दी-जुकाम, खांसी, बुखार, चेचक, फोड़ा-फुंसी, उल्टी, दस्त, टांन्सिल आदि प्रकृति के संकेत होते हैं। सभी रोग हमारे शरीर के हितैषी हैं, प्रकृति की भाषा को समझें और जीर्ण व मारक रोग से बचें। गठिया, श्वास, दमा, मधुमेह, पुराना कब्ज, पेचिश आदि जब प्रकृति की भाषा के अनुरूप चलते हैं तो तीव्र रोग के रूप में उभरते हैं और धीरे-धीरे शरीर रोगमुक्त हो जाता है तथा जीवनी शक्ति बढ़ जाती है।

मन, शरीर तथा आत्मा की एक साथ चिकित्सा : प्राकृतिक चिकित्सा दर्शन में मन, शरीर, आत्मा का घनिष्ठ संबंध माना गया है। इसलिए प्राकृतिक चिकित्सा दर्शन में रोगी शरीर के अलावा उसके दूषित मन एवं निर्बल आत्मा तीनों की एक साथ चिकित्सा होती है।

औषधियां दिये जाने का प्रश्न ही नहीं : आधुनिक औषधोपचार में जहर को जहर मारता है, ऐसा सोचकर जहरीले रसायनों का प्रयोग किया जाता है, जो शरीर के लिए घातक होते हैं। इसके विपरीत प्राकृतिक चिकित्सा शास्त्र में आहार को ही औषधि मानकर शरीर की शुद्धि साधना कराके रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई जाती है। शरीर में जीवनी शक्ति का बढ़ना ही आरोग्य का लक्षण होता है। टहलते हुए शुद्ध वायु लेना, कटि स्नान, रीढ़ स्नान व सूर्य भाप स्नान करना, पेट व माथे पर मिट्टी की पट्टी करना, मालिश, एनीमा, गर्म पाद स्नान आदि साधनों से रोग मुक्त व दीर्घायु हुआ जा सकता है।

-‘प्राकृतिक चिकित्सा का सामान्य ज्ञान’ से

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