मनरेगा ने व्यापक स्तर पर पलायन को रोकने का काम किया है। इस योजना के जरिये अब ग्रामीण इलाकों में भी जरूरतमंदों को रोजगार प्राप्त हो रहा है। मनरेगा के प्रभाव के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में सामान्य दैनिक मजदूरी बढ़ने से बहुत से परिवार अब शहरों में जाने की बजाय, गांव में ही गुजारा कर रहे हैं। इस सत्य को साफगोई से स्वीकारना होगा कि मनरेगा ने देश के तमाम हिस्सों में भुखमरी को जड़ से समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
एक किसान परिवार में जन्म लेने के कारण खेती किसानी एवं ग्रामीण जीवन की दुरूहता को पास से देखने का अवसर मिलता रहा है. बचपन की वह याद अभी भी ताज़ी है जब मेरे परिवार की खेती अधिया, बंटाई पर हुआ करती थी, कृषि कार्य में लगे तमाम परिवारों के पास इसके आलावा कोई नियमित कार्य नहीं था. आस पास कोई बड़े कल कारखाने या आजीविका के स्रोत न होने कारण अधिकांश श्रमिकों को शहर की तरफ काम की तलाश में निकलना ही होता था. तब ग्रामीण क्षेत्रों में पक्का निर्माण या लंबे समय चलने वाले काम नहीं होते थे। दैनिक मजदूरी का समय 7-8 घंटे का होता था और इतने समय मेहनत के मजदूर को मात्र 15-20 रुपये ही मजदूरी मिल पाती थी. मजदूरी की यही दर नब्बे के दशक में हमारे इलाके के गावों में प्रचलित थी। इक्कीसवीं शताब्दी के शुरूआती वर्षों में भी पुरुषों की दैनिक मजदूरी 35-40 रुपये थी जबकि महिलाओं की 25 से 30 रुपये थी। सालों साल मजदूरी में वृद्धि की कोई सम्भावना नहीं होती थी। ऐसे समय में तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) जैसा कानून बनाकर सराहनीय कार्य किया
जिन जिलों में इस योजना का क्रियान्वयन ईमानदारी और प्रतिबद्धता से हुआ, वहां अकुशल मजदूरों की दैनिक मजदूरी में अप्रत्याशित ढंग से स्वाभाविक तौर पर इजाफा हुआ। जो काम दशकों में नही हो पाया था, वह एक-दो वर्षों में दिखने लगा. कुशल और अकुशल श्रमिको के साथ ही महिलाओं की सामान्य मजदूरी 2-3 वर्षों में तीन से चार गुनी तक बढ़ी, जिससे निस्संदेह उस वर्ग को काफी लाभ पहुंचा और उनका जीवन स्तर सुधरा. 31 दिसंबर वर्ष 2009 को इस योजना के नाम में महात्मा गांधी का नाम दिया गया। इस प्रकार नरेगा अब मनरेगा हो गया.
भारत की बड़ी जनसंख्या ग्रामीण इलाकों में रहती है, लेकिन आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों की उपलब्धता प्रायः उतनी नहीं है, जितनी होनी चाहिए। यही कारण है कि रोजगार के लिए मजदूर, विशेषकर अकुशल श्रमिक शहर की ओर पलायन करते हैं. मनरेगा ने व्यापक स्तर पर पलायन को रोकने का काम किया है। इस योजना के जरिये अब ग्रामीण इलाकों में भी जरूरतमंदों को रोजगार प्राप्त हो रहा है। मनरेगा के प्रभाव के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में सामान्य दैनिक मजदूरी बढ़ने से बहुत से परिवार अब शहरों में जाने की बजाय, गांव में ही गुजारा कर रहे हैं। इस सत्य को साफगोई से स्वीकारना होगा कि मनरेगा ने देश के तमाम हिस्सों में भुखमरी को जड़ से समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मनरेगा की प्रायः आलोचना भी होती रही है, यहां तक कहा गया कि यह भ्रष्टाचार की जननी है और ग्राम प्रधानों के दरवाजे पर बोलेरो खड़ी करवाने वाली योजना है। निस्संदेह जिस प्रकार हर योजना में भ्रष्टाचार की संभावना होती है, मनरेगा उससे अछूती नहीं रही है. फर्जी जॉब कार्ड, फर्जी मास्टर रोल और कार्यपूर्ति के आधार पर पैसों की हेरा फेरी भी खूब हुई है, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इन सबके बावजूद ग्रामीण इलाकों में सम्पर्क मार्ग, चकरोड, नाली, तालाब, बागान, मेड़बंदी आदि की जो तस्वीर आज दिख रही हैं, वह निस्संदेह मनरेगा की ही देन हैं।
कार्पोरेट जगत ने मनरेगा को कभी सच्चे मन से स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उन्हें सस्ते दाम पर श्रम शक्ति मिलना कठिन हो गया, अकुशल श्रमिकों का शहरों की तरफ पलायन कम होने से कौड़ी के भाव मजदूर मिलने में मुश्किल हो रही है, अतः मनरेगा को कमजोर करने के लिए वे लगातार सरकारों पर दबाव डालते रहे हैं। संभवतः इन्हीं शक्तियों के दबाव में 2014 में देश में सत्ता में आयी भाजपा सरकार ने मनरेगा को महत्व देना कम कर दिया, बजट में बेतहाशा कटौती की गयी. मजदूरी में कोई वृद्धि नहीं होने से मनरेगा मजदूरों का रुझान इस योजना से कम होने लगा। स्थिति यह बनी कि उत्तर प्रदेश में मनरेगा के तहत मजदूरी में दो वर्ष में मात्र 4 रूपये की वृद्धि हो पायी। प्रति वर्ष 100 दिन का रोजगार प्रति परिवार को मिलने की व्यवस्था कानूनन होने के बावजूद, बमुश्किल 25-30 दिन का रोजगार ही मिलता रहा। कोरोना संक्रमण के प्रथम दौर में, जब व्यापक स्तर पर प्रवासी श्रमिकों की वापसी शहरों से गांवों की तरफ होने लगी, तब सरकार को मनरेगा की सुध आयी. इस संकट के दौर में गांव लौटे मजदूरों को मनरेगा ने ही सहारा दिया।
देश में मनरेगा लागू हुए 15 वर्ष से अधिक का समय बीतने के बाद भी इसकी जरूरत कम पड़ती नहीं दिख रही है, बल्कि जरूरत इस बात की है कि तमाम मजदूर संगठनों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा मनरेगा को और सक्षम बनाने के लिए की जा रही मांग को सरकार गंभीरता से ले, जिसके तहत प्रति परिवार को प्रतिवर्ष न्यूनतम 250 दिन का रोजगार, 600 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी और लघु तथा सीमांत किसानों को खेती के कार्य में मनरेगा से श्रम शक्ति उपलब्ध कराने जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे शामिल हैं। इन मांगों पर सहृदयता से विचार करने और उसके लिए व्यवस्था बनाने के लिए सरकार और राजनैतिक दलों को इच्छा शक्ति दिखानी चाहिए। इस तरह देश की ग्रामीण आर्थिकी और खेती-किसानी दोनों की बेहतरी सुनिश्चित होगी और कोरोना के कारण उत्पन्न हुई मुश्किलें कुछ आसान होंगी.