कभी इस देश के गरीब से गरीब व्यक्ति का वस्त्र रही खादी आज आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों को छोड़कर सामान्य गरीब या मध्यम वर्ग की पहुँच और औकात से बाहर हो चुका वस्त्र है। भारत भर में खादी भंडारों की विशाल श्रृंखला, जिसके माध्यम से खादी के वस्त्र जन-जन तक पहुँचते थे, आज मरणासन्न अवस्था में है और मूल विचार से अनेक समझौते करके किसी प्रकार से अपना अस्तित्व टिकाए हुए हैं। ऐसे में जो सबसे बड़ा सवाल उभरकर आता है, वह यही है कि ऐसी स्थिति में खादी का भविष्य क्या है? या क्या होना चाहिए?
खादी पिछले लंबे समय से गांधी विचार से जुड़े लोगों के लिए चिंतन और चिंता का विषय रहा है। खादी के साथ अधिकांश गांधी अनुयायियों का संबंध भावनात्मक है। अंग्रेजों के साथ संघर्ष करते हुए उनके विशाल साम्राज्य को चुनौती देने के लिए गांधी ने जिन छोटे-छोटे और महत्वहीन से लगते माध्यमों का उपयोग किया था, उनमें खादी प्रमुख था। भारत के सदियों पुराने समृद्ध वस्त्र उद्योग को जिस कुटिलता से अंग्रेजों ने मटियामेट किया था, खादी के माध्यम से उसे ही कुछ मात्रा में पुनर्जीवित कर अंग्रेजों के आर्थिक साम्राज्य को झटका देने का काम गांधी ने किया था। खादी मानो स्वतंत्रता संग्राम का और उसके बाद गांधीवादियों की आधिकारिक पोशाक का अटूट हिस्सा बन गया।
आजादी के पचहत्तर सालों में जिस तरह मूल्यों की प्रतिष्ठापना करने वाली तमाम संस्थाएं गिरावट का शिकार होकर अवसान की ओर बढ़ी हैं, उनमें खादी भी अहम है। कहने को खादी के संरक्षण और संवर्धन के लिए भारत सरकार ने विशेष अधिनियम के माध्यम से 1957 में खादी और ग्रामोद्योग आयोग का गठन किया, मगर यह बात किसी से छिपी नहीं है कि खादी के पीछे का मूल विचार जाने बिना, लकीर की फकीरी करने की शासकीय संस्थाओं की सुपरिचित नीति और पद्धति के चलते खादी और ग्रामोद्योग आयोग, खादी के लिए तारक की जगह मारक सिद्ध हुआ है। यह विषय बहुत बड़ा है और स्वतंत्र रूप से विचार-विमर्श की मांग करता है, इसलिए फिलहाल इसे यहीं छोड़ देते हैं।
खादी के इतिहास को एक ओर रखकर जब हम खादी की वर्तमान स्थिति का विचार करते हैं तो दो बातें हमारे सामने बहुत स्पष्ट हो जाती हैं। कभी इस देश के गरीब से गरीब व्यक्ति का वस्त्र रही खादी आज आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों को छोड़कर सामान्य गरीब या मध्यम वर्ग की पहुँच और औकात से बाहर हो चुका वस्त्र है। दूसरा, भारत भर में खादी भंडारों की विशाल श्रृंखला, जिसके माध्यम से खादी के वस्त्र जन-जन तक पहुँचते थे, आज मरणासन्न अवस्था में है और मूल विचार से अनेक समझौते करके किसी प्रकार से अपना अस्तित्व टिकाए हुए है। ऐसे में जो सबसे बड़ा सवाल उभरकर आता है, वह यही है कि ऐसी स्थिति में खादी का भविष्य क्या है? या क्या होना चाहिए?
एक बात बिलकुल स्पष्ट है कि स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े लोगों या गांधी विचार या गांधीवादी संस्थाओं से जुड़े लोगों के खादी से भावनात्मक लगाव की उम्मीद आप आजादी के पच्चीस-पचास साल बाद जन्मे सामान्य लोगों से नहीं कर सकते। फिर वे खादी को क्यों चुने? इस सवाल का जवाब मैं सवाल को थोड़ा-सा बदलकर देने का प्रयास करता हूँ कि मैंने खादी पहनना क्यों चुना? सचेत रहकर, विचारपूर्वक जब मैंने अपने वस्त्रों के लिए खादी का चुनाव किया तो उसके पीछे तीन बातें थीं – 1. भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देश की जलवायु में मानव शरीर के लिए खादी सर्वोत्तम वस्त्र है। 2. खादी सबसे ज्यादा पर्यावरणस्नेही वस्त्र है, जिसके निर्माण में कार्बन फुट प्रिंट की मात्रा सबसे कम है। 3. खादी शोषणरहित और बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार देने वाला वस्त्र है।
उपरोक्त तीन कसौटियों पर यदि आज हम खादी को कसने का प्रयास करें तो हम देखते हैं कि पहली कसौटी पूरी तरह से वादातीत है कि भारत जैसे देश की जलवायु में मानव शरीर के लिए चरखे पर कती और हथकरघे पर बुनी गई सूती खादी सामान्यतः सबसे बेहतर वस्त्र है। इसी सिलसिले को यदि आगे बढ़ाएं तो हमें स्वीकार करना होगा कि हाथ से चलने वाले चरखे पर सूत कातकर और हथकरघे पर बुनकर तैयार की गई खादी सबसे ज्यादा पर्यावरणस्नेही वस्त्र है। लेकिन फिर जब मुद्दा शोषणरहित होने और बड़ी संख्या में रोजगार देने वाली कसौटी का आता है तो हमें खादी बहुत पिछड़ती नज़र आती है।
इस तीसरे मुद्दे पर थोड़ा विस्तार से बात करने से पहले हमें इस बात को एक बार ध्यान में लेना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में महात्मा गांधी ने भारत में चरखे की पुनर्खोज करके खादी को नया जीवन दिया, उनमें यह तीसरी कसौटी उनके लिए सबसे पहली थी। यद्यपि प्रकृति से अनुकूलता और पर्यावरण का विचार गांधी चिंतन के मूल तत्वों में शामिल है, मगर खादी को पुनर्जीवित करने के पीछे अंग्रेजों के आर्थिक सामाज्य को पलीता लगाना, स्वदेशी को प्रोत्साहन देना और साल का एक बड़ा हिस्सा, बिना किसी काम के बिताने वाले भारतीय किसानों को रोजगार का एक अतिरिक्त साधन उपलब्ध कराना गांधी का मूल उद्देश्य था।
आज खादी को लेकर जो चिंताएं उसके प्रेमियों, शुभचिंतकों और प्रशंसकों के मन में उभरती हैं, उन्हें हम निम्न प्रकार बिंदुवार देख सकते हैं :
- खादी की कीमत – आज सामान्य से सामान्य खादी का कपड़ा भी ढाई सौ से तीन सौ रूपए मीटर आता है। एक शर्ट या कुर्ते के लिए कम से कम ढाई से तीन मीटर कपड़ा लगता है। उस पर यदि सिलाई जोड़ ली जाए तो कोई शर्ट या कुर्ता 1200 से 1500 रुपए तक पड़ता है। सिले हुए कपड़े का मूल्य उत्पादक संस्था, डिज़ाइन और क्वालिटी के अनुसार कम या ज्यादा भी हो सकता है। कोई भी निम्न या निम्न मध्यम आर्थिक वर्ग का व्यक्ति इन्हें खरीदने के बारे में सोच भी नहीं सकता। इससे कम रेंज में जो कपड़े मिलते हैं, वह हर तरह से दोयम दर्जे के होते और दिखते हैं।
- कत्तिनों और बुनकरों का शोषण– आज की स्थिति पर दृष्टि डालें तो हमें दिखाई देता है कि चरखे पर सूत कताई और फिर हथकरघे पर उसकी बुनाई करने वाले अधिकांश खादी निर्मिति केंद्र आज बंद हो चुके हैं या बंद होने की कगार पर हैं। जिन केंद्रों पर सूत कताई करवाई जाती है, उनमें बहुतांश महिलाएं कार्यरत हैं और उन्हें दस से बारह घंटे कताई करने के बाद भी मुश्किल से 150 से 200 रुपए प्रतिदिन मिलते हैं। बुनकर की कमाई भी बहुत बेहतर नहीं है। खादी की कीमत से इसकी तुलना करें (किसी जमाने में खादी की कीमत का 60 प्रतिशत भाग मजदूरी का माना जाता था) तो सूत कातने वालों और बुनकरों का शोषण साफ-साफ दिखाई देता है।
- खादी के नाम पर मिक्स कपड़ा– खादी एक वैशिष्ट्यपूर्ण कपड़ा है। कपास, ऊन या रेशम से चरखे पर सूत का निर्माण, हथकरघे से बुनाई, प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल आदि इन विशेषताओं के बिना उसे पर्यावरणस्नेही वस्त्र कहना संभव नहीं है। मगर पिछले कुछ सालों में खादी भंडारों में भी खादी के नाम पर पोलिस्टर मिश्रित कपड़े पॉली वस्त्र या पॉली खादी के नाम से बेचे जा रहे हैं। पॉली वस्त्र में करीब दो तिहाई पोलिस्टर धागा और एक तिहाई सूती धागा होता है। जबकि पोलिस्टर होने पर उसे खादी कहना ही सबसे बड़ा धोखा है। निजी दुकानें छोड़ दीजिए, खादी भंडार भी सामान्य ग्राहकों को यह भेद स्पष्ट रूप से नहीं बताते हैं। इस आधार पर इनकी खादी भंडार में बिक्री ही अनुचित है।
- मिल के सूत का प्रयोग– आज खादी के नाम पर मिल के सूत को हथकरघे पर बुनकर तैयार किया गया कपड़ा बड़ी संख्या में बेचा जा रहा है। जिन्होंने कभी चरखा चलाया है, जो इसके जानकार है, ऐसे चंद लोगों को छोड़कर इन धागों का फर्क समझ पाना किसी भी व्यक्ति के लिए मुश्किल है। मिल के धागे से बने और हथकरघे पर बुने गए कपड़े को हैंडलूम के कपड़े कहा जा सकता है, मगर खादी नहीं।
- सौर चरखे या बिजली से चलने वाले चरखों का प्रयोग– कुछ संस्थाओं ने अंबर चरखे (गांधी जी और विनोबा की पहल पर विकसित यांत्रिक चरखा, जो पारंपरिक चरखे की तुलना में तेजी से सूत कताई करता है।) को सौर ऊर्जा या बिजली से जोड़कर चलाने के प्रयोग किए हैं। इसी तरह कई जगहों पर हथकरघे को भी बिजली से चलाया जा रहा है। मानवीय श्रम के बगैर चलने वाले इन चरखों पर काते गए सूत को खादी कहना कितना उचित है, यह भी विचार करने योग्य है।
- प्रोसेस्ड खादी– खादी के कपड़े में कड़कपन लाने के लिए कलफ लगाने की पद्धति है। लेकिन इससे भी खादी के कपड़े में सल पड़ने की समस्या का समाधान नहीं होता। इन दिनों खादी को प्रोसेस्ड कर कपड़े में चमक लाने और सल की समस्या का समाधान करने का नया तरीका प्रचलन में आया है। लेकिन यह ऐसा है कि कोई सेंद्रीय अनाज उगाये और फिर उसके भंडारण के लिए कृत्रिम रसायनों का प्रयोग करे या उस पर रासायनिक प्रकिया करे।
उपरोक्त बिंदुओं के मद्देनजर आज खादी के विषय में व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत आन पड़ी है। सरकार द्वारा खादी को प्रचारात्मक प्रोत्साहन और डिजाइनर खादी के खरीदारों की बढ़ती संख्या के मद्देनज़र कई फैशन डिजायनर, संस्थाएं और कंपनियां अब खादी निर्माण के क्षेत्र में उतर गयी हैं। ऐसे में खादी के जो मूल तत्व हैं, उनकी रक्षा करते हुए खादी के अस्तित्व को बचाए रखना बहुत बड़ी चुनौती बन गई है।
कुछ लोगों का मानना है कि सूत कताई के क्षेत्र में सौर ऊर्जा या बिजली के प्रयोग को मान्यता दी जानी चाहिए। क्योंकि अंबर चरखा हाथ से चलाया जाए या बिजली से, उसका सूत लगभग एक-सा होता है। इसके विकेंद्रित स्वरूप को कायम रखने पर सूत कताई करने वाले की उत्पादन क्षमता बढ़ेगी और उसे पर्याप्त मजदूरी मिल सकेगी। इससे खादी के क्षेत्र में हो रहे शोषण का लांछन दूर करने में सहायता मिलेगी। इसके अलावा निम्न और निम्न मध्यम वर्ग के लोगों को घर में ही अतिरिक्त रोजगार उपलब्ध हो सकेगा। लेकिन इसका विरोध करने वालों का तर्क है कि इसके चलते खादी की पर्यावरणस्नेही और न्यूनतम कार्बन फुट प्रिंट वाली विशेषता पर प्रश्नचिह्न लगता है।
खादी के साथ कुछ समय तक एक बड़ी समस्या उसके साथ जुड़े सौंदर्यबोध का था। रंग, डिजाइन आदि के साथ कोई नये प्रयोग न करते हुए सालों-साल एक-सी खादी का उत्पादन होता रहा, जिसे नयी पीढ़ी क्वचित ही पसंद करती थी। मगर पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र में बहुत सुधार आया है। वर्धा के मगन संग्रहालय ने रंग और डिजाइन के मामले में कई नये प्रयोग किए। बाद में तो फैशन डिजाइनरों और अन्य संस्थाओं के सहभाग से अब खादी इस मामले में बहुत पीछे नहीं रह गई, बशर्ते आपके पास उसकी कीमत चुकाने के लिए पर्याप्त पैसा हो, तो सवाल फिर वहीं पर आ खड़ा होता है कि खादी की सभी विशेषताओं को बचाते हुए खादी को कैसे बचाया और बढ़ाया जाए।
हर बार की तरह यदि सचेत होकर देखें तो गांधी फिर राह दिखाते नज़र आते हैं। चरखे की खोज से लेकर खादी की निर्मिति के सुचालित होने के बीच की कहानी बहुत रोचक है। मगर उसमें न जाकर हम सिर्फ एक बात की ओर ध्यान देंगे। जब गांधी को यह समझ में आया कि चरखे पर सूत कताई के वर्तमान स्वरूप में कताई करने वालों को पर्याप्त मजदूरी नहीं मिल पाती है तो उन्होंने चरखे के स्वरूप में कुछ शर्तों के साथ सुधार के लिए एक प्रतियोगिता रखी। प्रारंभ में इसके लिए पाँच हजार रुपए का पुरस्कार घोषित किया गया, जिसे कालांतर में बढ़ाकर एक लाख रुपए कर दिया गया, जो उस समय के लिहाज से बहुत ज्यादा था। यद्यपि गांधी के जीवित रहते इसमें सफलता नहीं मिली, मगर बाद में तमिलनाडु के एकांबरनाथन के प्रयासों से 1954 में अंबर चरखा सामने आया। विनोबा ने इसे स्वीकृति दी। अंबर चरखे की वजह से पारंपरिक चरखे की तुलना में नियत समय में चार से पाँच गुना ज्यादा सूत कताई संभव हो पाई।
आज जरूरत चरखे के क्षेत्र में शोध और विकास की प्रक्रिया को एक बार पुन: शुरू करने की है। यह शोध, संशोधन और विकास न सिर्फ चरखे और हथकरघे के स्वरूप में हो, बल्कि खादी में खासकर कपास के साथ कौन से प्राकृतिक तत्वों का मिश्रण किया जाए कि उसके गुणों को बरकरार रखते हुए खादी आधुनिक पीढ़ी की रूचि पर भी खरी उतरे, इस पर ध्यान देने की जरूरत है। यदि पारंपरिक चरखे के मुकाबले अंबर चरखा पाँच गुना ज्यादा उत्पादन देने में सफल हुआ, तो आज तो तकनीक और प्रौद्योगिकी ने लंबी छलांग लगाई है। क्यों न उसका उपयोग खादी को एक नया जीवन देने में किया जाए?
मेरा व्यक्तिगत मानना यही है कि खादी की तीन मुख्य विशेषताओं से यदि हम समझौता करते हैं तो फिर जो भी वस्त्र तैयार होगा, उसे खादी कहना सत्य के साथ समझौता करना होगा। और यदि उसके निर्माण के प्राचीन स्वरूप को बरकरार रखते हैं तो उसे मरणासन्न स्थिति से बाहर निकालना मुश्किल होगा। मार्ग एक ही है, तत्वों का बरकरार रखते हुए तकनीक में बदलाव। शायद गांधी होते तो वह भी यही करते।
–पराग मांदले