सत्य का प्रयोग
रवीन्द्र सिंह चौहान की लिखी यह कहानी एक वास्तविक घटना है, जब रेलवे के जिम्मेदार कर्मचारियों/अधिकारियों ने उनसे नाजायज़ तौर पर दस रूपये का जुरमाना वसूला था. इस अन्याय के खिलाफ चली लंबी लड़ाई में अंततः उनकी जीत हुई और रेल विभाग के नई दिल्ली स्थित धन वापसी विभाग से सवा ग्यारह वर्ष बाद दस रुपये का भुगतान आदेश प्राप्त हुआ।
नवंबर 1979 की घटना है, बरेली से इलाहाबाद जाने वाली पैसेंजर (378 डाउन) ट्रेन किन्हीं कारणों से रद्द हो गयी थी। टिकट खिड़की पर भारी भीड़ थी, क्योंकि इस रूट की दूसरी गाड़ी लखनऊ- मुगलसराय पैसेंजर थी। मैं प्लेटफार्म टिकट खरीदकर लखनऊ स्टेशन के प्लेटफार्म नं. 8 पर पहुंचा, जहां मुगलसराय जाने वाली पैसेंजर खड़ी थी। मैंने गाड़ी के टीटी से टिकट बनवाने हेतु अनुरोध किया, उन्होंने ट्रेन के गार्ड को सूचित करने को कहा, टीटी महोदय टू टायर कोच (अब नहीं चलता) के सामने खड़े थे, गार्ड का डिब्बा पास में ही था। मैंने गार्ड को बताया और पुन: वापस आकर टीटी को लखनऊ से रायबरेली का किराया तीन रुपये तीस पैसे दे दिया। भीड़ के कारण मैंने टीटी से कहा कि मैं कहीं बैठ जाता हूं, रायबरेली में आपसे मिलकर टिकट ले लूंगा। उन्होंने सहमति व्यक्त की और मैं जहां जगह मिली, बैठ गया।
रात्रि लगभग एक बजे ट्रेन रायबरेली पहुंची। मैं दौड़कर टीटी के पास टिकट के लिए पहुंचा, उन्होंने कहा कि चलिये आपको गेट पार करा देता हूं। मैंने कहा, मुझे टिकट दीजिये, मैं स्वयं गेट पार कर लूंगा। टीटी ने कहा कि टिकट तो नहीं बना, उन्होंने प्लेटफार्म टिकट और रेलभाड़ा वापस कर दिया, मैं दौड़कर गार्ड के पास गया, उनसे टिकट नहीं बनाने की शिकायत की। गार्ड साहब ने कहा कि अब मैं आपके लिए ट्रेन विलम्बित (डिटेन) नहीं करूंगा’; इतना कहकर उन्होंने ड्राइवर को हरी बत्ती दिखायी और गाड़ी लेकर चले गये।
मैंने रायबरेली स्टेशन के सहायक स्टेशन मास्टर, जो ड्यूटी पर थे, उनको कहानी बताकर रेलभाड़ा जमा कराने की बात कही तो उन्होंने रेलभाड़े के पैसे किसी भिखारी को दे देने की सलाह दी। स्टेशन के निकास गेट पर पहुंच कर मैंने टिकट कलक्टर को सारी कहानी बतायी। उन्होंने कहा कि मैं तो आपको बिना टिकट मानता हूं, इसलिए जुर्माना सहित किराया लूंगा। मैंने उनसे कहा कि मैंने सच बात बता दी, अब आप जैसा चाहें वैसा करें। दस रुपये जुर्माने सहित रेल भाड़े के कुल तेरह रुपये तीस पैसे जमा करके मैंने रसीद ली, रसीद पर टिकट कलक्टर ने मेरे अनुरोध पर लखनऊ के प्लेटफार्म टिकट का नंबर भी अंकित कर दिया।
मैंने इस पूरी घटना की कहानी उत्तर रेलवे के लखनऊ मंडल के रेल प्रबंधक को लिखकर जुर्माने के रूप में ली गयी रकम की वापसी की मांग रखी। रेल प्रबंधक ने कुछ समय पश्चात मुझे सूचित किया कि ट्रेन के गार्ड और टीटी ने जवाब में बताया है कि बिना टिकट पकड़े जाने के कारण आपने शिकायत की है। मैंने रेल प्रबंधक को पत्र लिखकर टीटी और गार्ड द्वारा झूठा बयान देने की बात कही और जांच कराने की बात कही। रेल प्रबंधक ने एक निश्चित तिथि पर मुझे रायबरेली स्टेशन पर बुलाया, जहां उन्होंने आमने-सामने की जांच रखी थी। निश्चित तिथि पर मैं रायबरेली स्टेशन पर पहुंचा। लखनऊ मंडल रेल प्रबंधक कार्यालय से जांच अधिकारी (मुख्य टिकट निरीक्षक) महोदय घटना के दिन ड्यूटी पर तैनात टीटी और गार्ड को लेकर पहुंचे। स्टेशन मास्टर के कक्ष में परिचय हुआ। टीटी / गार्ड ने जांच अधिकारी से मुझसे कक्ष के बाहर बात करने की इजाजत मांगी, जो उन्होंने दे दी। उन्होंने मुझसे बाहर चलने का अनुरोध किया, मैं बाहर निकला तो गार्ड-टीटी दोनों ने कहा कि आपका जो नुकसान हुआ हो, वह बता दें, हम लोग दे देंगे, ये शिकायत वापस ले लें। मैंने गार्ड-टीटी से कहा कि अब तो पानी सर के ऊपर से गुजर चुका है, क्योंकि आपने मुझे बिना टिकट पकड़े जाने का आरोप लगाया है, शिकायत वापस लूंगा तो आप ईमानदार हो जायेंगे और मैं बेईमान बन जाऊंगा, इसलिए जुर्माने की रकम वापसी के लिए केस लड़ना अब तो मेरी मजबूरी बन गयी है।
हम लोग पुन: कक्ष में वापस आ गये। जांच अधिकारी ने कहा कि पहले किससे पूछताछ करना चाहेंगे? मैंने कहा, गार्ड से किन्तु टीटी को बाहर भेज दीजिये। टीटी बाहर गये, तब मैंने गार्ड से पूछा, 6 माह की बात है, सब याद है? गार्ड ने कहा, हां, याद है। मैंने गाड़ी में टू टायर कोच की पोजीशन पूछी, तो वे नहीं बता पाये, बाद में रिकार्ड देखकर बताया कि उनकी बोगी से दूसरी बोगी टू टायर कोच की थी। यह मैंने इसलिए पूछा था कि टीटी महोदय टिकट बनाना चाहते तो गार्ड से प्रमाण पत्र लेकर मेरा टिकट बना देते। मेरा दूसरा सवाल था कि उनसे मेरी कोई रंजिश तो नहीं है। गार्ड ने जवाब में कहा कि कोई रंजिश नहीं है। गार्ड ने पूछताछ में यह कहा कि मैं लखनऊ में उनसे टिकट हेतु प्लेटफार्म पर नहीं मिला था।
गार्ड ने मुझसे पूछा कि अमुक-अमुक स्टेशनों पर गाड़ी 18-20 मिनट खड़ी रही, आपका टिकट नहीं बना था तो बताना चाहिए था। उन स्टेशनों पर शिड्यूट ठहराव कितना है, पूछने पर गार्ड ने बताया कि मात्र दो मिनट का है। मैंने गार्ड से पूछा कि आपने कहा, लखनऊ स्टेशन पर मैं आपसे मिला ही नहीं, तो यह सवाल पूछने का आधार क्या है? गार्ड साहब निरुत्तर हो गये।
गार्ड के बाद टीटी महोदय अपना अंग्रेजी में लिखित बयान लाये। उसमें उन्होंने स्वीकार किया कि मैं उन्हें लखनऊ स्टेशन के प्लेटफार्म पर मिला था। मैंने टिकट बनाने की उनसे मिन्नतें की थीं। उन्होंने मुझे गार्ड को बताने को कहा था, पता नहीं कि मैंने गार्ड को बताया अथवा नहीं, उन्होंने जब मुझसे टिकट बनाने हेतु भाड़ा मांगा, तो मैंने दिया नहीं और कहा कि मुझसे कोई टिकट नहीं मांगेगा। बिना टिकट पकड़े गये हैं, इसलिए शिकायत की है।
टीटी ने भी स्वीकार किया कि मेरी कोई उनसे रंजिश नहीं है। टीटी ने मुझसे वही बात पूछी, जो गार्ड ने पूछी थी। उन्होंने मुझसे पूछा, आपके पास सामान क्या था? मैंने कहा कि सामान का शिकायत से कोई संबंध नहीं है, इसलिए मैं नहीं बताऊंगा। मेरी बात का जांच अधिकारी ने समर्थन कर टीटी को डांटा कि सवाल राजस्व का है या सामान का? जिस टिकट कलेक्टर ने जुर्माना वसूला था, उसने अपने लिखित बयान में यह नहीं कहा कि उसने मुझे बिना टिकट पकड़ा, वरन् उसने कहा कि गाड़ी चली जाने के बाद ये मेरे पास स्वयं आये और टिकट नहीं बनाने की कहानी बतायी, किन्तु गार्ड सर्टीफिकेट नहीं होने के कारण नियमानुसार जुर्माना वसूल कर लिया गया।
इसके बाद जांच अधिकारी ने एक तारीख और रखी, किन्तु जांच आगे नहीं बढ़ायी। जांच अधिकारी ने मेरा मामला सही मानते हुए जुर्माने की रकम वापस करने हेतु फाइल नई दिल्ली भेज दी और संबंधित कर्मचारियों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही किये जाने का आदेश पारित कर दिया।
कहानी बहुत लंबी है। टीटी-गार्ड ने केस को लटकाने/दबाने की बड़ी कोशिश की, किन्तु जब भक्तचरनदास रेल मंत्री बने और अशोक जी उनके निजी सचिव बने तो उनके निर्देश पर रेल विभाग के नई दिल्ली स्थित धन वापसी विभाग से सवा ग्यारह वर्ष बाद दस रुपये का भुगतान आदेश प्राप्त हुआ। परिणाम स्वरूप लखनऊ स्टेशन के बुकिंग आफिस से जुर्माने की धनराशि वापस मिल गयी। ऐसे ही गैर वाजिब रेल भाड़े की वापसी के लिए गांधी जी ने भी फरवरी 1915 में पूर्व रेलवे मैनेजर को शिकायती पत्र लिखा था।
-रवीन्द्र सिंह चौहान