वो सुबह कभी तो आयेगी…!

आइए, इस यात्रा के बहाने बापू के पास चलें, भगत, अशफाक, बिस्मिल और अनेकानेक शहीदों के पास चलें। उस हिंदुस्तान में चलें, जो अंबेडकर के ख्वाब में पल रहा था, जो विवेकानंद और रवींद्रनाथ टैगोर के उद्दात मानवतावादी आदर्शों में व्यक्त हो रहा था।

 

आजादी के 75 साल के मौके पर निकलने वाली सांस्कृतिक यात्रा ‘ढाई आखर प्रेम का’ असल में स्वतंत्रता संग्राम के गर्भ से निकले स्वतंत्रता-समता-न्याय और बंधुत्व के उन मूल्यों के तलाश की कोशिश है, जो आजकल नफरत, वर्चस्व और दंभ के तुमुलघोष में डूब सा गया है। गो कि वह हमारे घोषित संवैधानिक आदशों में झिलमिलाते हुए हर्फों के रूप में, गांधी की प्रार्थनाओं में और हमारी आशाओं में अभी भी चमक रहा है। जिसका दामन पकड़कर हमारे किसान गांधी की अंहिसा और भगत सिंह के अदम्य साहस के रास्ते अपनी कुबार्नी देते हुए डटे हैं।

यह यात्रा उन तमाम शहीदों, समाज सुधारकों, भक्ति आंदोलन और सूफीवाद के पुरोधाओं का सादर स्मरण है, जिन्होंने भाषा, जाति, लिंग और धार्मिक पहचान से इतर मनुष्य की मुक्ति एवं लोगों से प्रेम को अपना एकमात्र आदर्श घोषित किया। प्रेम जो उम्मीद जगाता है, प्रेम जो बंधुत्व, समता और न्याय की पैरोकारी करता है, प्रेम जो कबीर बनकर पाखंड पर प्रहार करता है, प्रेम जो भाषा, धर्म, जाति नहीं देखता और इन पहचानों से मुक्त होकर धर्मनिरपेक्षता का आदर्श बन जाता है।

आइए, इस यात्रा के बहाने बापू के पास चलें, भगत, अशफाक, बिस्मिल और अनेकानेक शहीदों के पास चलें। उस हिंदुस्तान में चलें, जो अंबेडकर के ख्वाब में पल रहा था, जो विवेकानंद और रवींद्रनाथ टैगोर के उद्दात मानवतावादी आदर्शों में व्यक्त हो रहा था। मानवतावाद जो अंधराष्ट्रवादी – मानवद्रोही विचार को चुनौती देते हुए टैगोर के शब्दों में ‘उन्नत भाल और भय से मुक्त विचार’ में मुखरित हो रहा था, जहां ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और पंडिता रमाबाई जैसे लोग ज्ञान के सार्वभौम अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, जो आज तक भी हासिल नहीं किया जा सका है। वहीं अंधविश्वास और रूढ़िवाद के खिलाफ ईश्वरचंद्र विद्यासागर और राम मोहन राय सरीखे लोग तर्क, बुद्धि और विवेक का दामन पकड़कर एक तर्कशील हिंदुस्तान के रास्ते चल रहे थे। यह रास्ता प्रेम और ज्ञान का रास्ता है। यह यात्रा नफरत के बरक्स प्रेम, दया, करुणा, बंधुत्व और समता से परिपूर्ण न्यायपूर्ण हिंदुस्तान को समर्पित है, जिसे हम और आप मिलकर बनाएंगे और जो बनेगा जरूर।

इप्टा की ढाई आखर प्रेम की सांस्कृतिक यात्रा के 29 वें दिन की शुरुआत बनारस में सांस्कृतिक रैली के साथ हुई। सुबह 8:30 बजे शुरू हुई यात्रा बनारस की गलियों से होते हुए मूर्धन्य साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के घर पहुंची। 260 साल पुराने भारतेंदु हरिश्चंद्र के घर में उनके भाई के परिवार की पांचवीं-छठी पीढ़ी रह रही है। घर को इमारत कहना ज्यादा मुफीद होगा और इमारत अभी बुलंद है।

भारतेन्दु की विरासत के नाम पर यहां उनके हस्तलिखित लेख और परिवार की तस्वीरें हैं। साहित्य के नाम पर आपको एक पुस्तक देखने को नहीं मिलेगी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के घर से निकलने के बाद जत्था संकरी गलियों से होकर भारत रत्न शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के घर पहुंचा।

तीसरे मंजिल पर मौजूद जिस कमरे में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान रहते थे, वहां उनकी तस्वीरों के अलावा चारपाई, भारत रत्न आदि रखा हुआ है। वहीं छत पर उस्ताद रियाज करते थे। कोई भी घर मरम्मत चाहता है। सरकार तो धरोहरों के प्रति उदासीन है ही पर यहां परिवार वालों की उदासीनता भी साफ नज़र आई।

इसके बाद पैदल चलते हुए जत्था कामायनी के रचयिता जयशंकर प्रसाद के घर पहुंचा। यहां उनके पोते जो खुद भी बुजुर्ग हो चुके हैं, कमायनी से कुछ पंक्तियां पढ़ीं। उन्होंने बताया कि हमारे परिवार में किसी को साहित्य से कोई मतलब नहीं है। जयशंकर प्रसाद की धरोहर के रूप में यहां उनकी एक तस्वीर लगी है घर में प्रसाद जी के लिखे साहित्य के नाम पर एक पन्ना तक उपलब्ध नहीं है। सभी के आंगन से उनके नाम की मिट्टी पात्र में संग्रहित की गई। यहाँ से कबीर मठ गये. कबीर के दोहे कबीर मठ की दीवारों पर अंकित हैं और मठ के रास्ते पर गली से सटी हुई दीवार पर भी चित्रों के साथ दोहे अंकित हैं। कबीर मठ में हलचल देखने को नहीं मिली. यहाँ से जत्था उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जन्मस्थली लमही पहुंचा। यहां प्रेमचंद की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर, उनके नाम की मिट्टी पात्र में संग्रहित की गई। प्रेमचंद संग्रहालय के बगल में रामलीला मैदान पर प्रेरणा कला मंच के साथियों द्वारा प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ पर आधारित नाटक ‘हाय रे पानी’ प्रस्तुत किया गया.

शाम को जत्था गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक साहित्यकार व पटकथा लेखक राही मासूम रजा की जन्मस्थली गाज़ीपुर के गंगौली गांव पहुंचा। यहां पर रज़ा के घर से उनके नाम की मिट्टी ली गई। यहां पर जत्थे के साथियों पर ग्रामीणों द्वारा फूल बरसाकर स्वागत किया गया। रज़ा के घर पर जिसका कुछ हिस्सा अभी भी कच्चा है और बाक़ी पक्का है। यहां पर रज़ा की विरासत के नाम पर तस्वीरें हैं। लेकिन यहां उनका लिखा देखने को कुछ नहीं मिलता। गंगौली होते हुए जत्था स्वतंत्रता सेनानी प्रभु नारायण सिंह की पुण्यतिथि पर उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया। बहादुरगंज होते हुए जत्था मऊ पहुंचा, जहां जत्थे की अगवानी उत्तर प्रदेश किसान सभा मऊ ने की। चौक पर अंबेडकर प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया।

सांस्कृतिक संध्या का आयोजन राहुल सांकृत्यायन सृजनपीठ ने किया। यहाँ मऊ जिले व सीमा से लगे गाजीपुर जिले के अब्दुल हमीद, सरजू पांडेय सहित 100 स्वतंत्रता सेनानियों व शहीदों के नाम की मिट्टी साझी शहादत-साझी विरासत के प्रतीक पात्र में रखी गई। मिट्टी छोटी-छोटी थैलियों में सबके नाम व पते की चिट के साथ अलग-अलग इकट्ठी की जा रही है। सभी का नाम बाद में जारी किया जायेगा। सांस्कृतिक संध्या में इप्टा लखनऊ की साथी रंगकर्मी वेदा राकेश ने ‘एक अकेली औरत’ व लखनऊ इप्टा के साथियों ने ‘लकीर’ नाटक का सामूहिक मंचन किया।
इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव राकेश वेदा ने यात्रा के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए, स्वतंत्रता सेनानियों, शहीदों, साहित्यकारों, कलाकारों की स्थली से साझी शहादत-साझी विरासत पात्र में संग्रहित की जा रही मिट्टी के महत्व को लेकर बात रखी।

– मृगेंद्र

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