न्याय का नैसर्गिक आदर्श कहता है कि कोई दोषी छूटना नहीं चाहिए और किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए. किसी का किसी पीड़ित की मदद करना किसी मामले को खींचना किस प्रकार हुआ, यह सवाल देश में ही नहीं, दुनिया के अनेक सामाजिक मोर्चों पर जेरे बहस है
27 फरवरी 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस की बोगी जलाए जाने की घटना के बाद गुजरात में शुरू हुए साम्प्रदायिक दंगों के दौरान 28 फरवरी को अहमदाबाद स्थित गुलमर्ग सोसाइटी पर हमला हुआ, जिसमें भूतपूर्व कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी मार डाले गये. उनकी बेवा जाकिया जाफरी ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कुल 63 लोगों के खिलाफ जांच की तहरीर दी. मार्च 2008 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एसआईटी गठित हुई. 10 अप्रैल 2012 को एसआईटी ने नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी. 15 अप्रैल 2013 को अधूरी जाँच का आरोप लगते हुए जाकिया जाफरी की तरफ से सिटी कोर्ट में याचिका डाली. उसी साल 27 दिसम्बर को याचिका खारिज हो गयी. 18 मार्च 2014 को ज़किया ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की. 5 अक्टूबर 2017 को याचिका ख़ारिज कर दी गयी. 13 नवम्बर 2018 को उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की, जिसकी सुनवाई 10 नवम्बर 2021 को शुरू हुई और 24 जून 2022 को खारिज कर दी गयी. जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस दिनेश महेश्वरी और जस्टिस सीटी रविकुमार की बेंच ने याचिका खारिज करते हुए टिप्पणी की कि इस मामले को जानबूझकर लंबा खींचा गया. कुछ लोगों ने न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने का प्रयास किया ताकि मामला चर्चा में बना रहे. हर उस व्यक्ति की ईमानदारी पर सवाल उठाए गए, जो मामले को उलझाए रखने वाले लोगों के आड़े आ रहा था. न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग कर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले ऐसे लोगों पर उचित कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए. अदालत की इस टिप्पणी के साथ याचिका ख़ारिज होने के बाद देश के गृहमंत्री अमित शाह ने एक टीवी चैनल से बात करते हुए इस मामले को अब तक खींचने वालों में तीस्ता सीतलवाड़ का नाम लिया और 25 जून की शाम होते होते गुजरात एटीएस ने मुंबई स्थित तीस्ता के घर पहुंचकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया.
इस पूरे पैराग्राफ से एक क्रोनोलोजी उभर के सामने आती है. इस क्रोनोलोजी पर फोकस करें, तो तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी के पीछे एक योजना समझ में आती है. सवाल है कि गुजरात जनसंहार के पीड़ित पक्ष की पैरवी करने वाली और अनेक दोषियों को सजा दिलवाने वाली अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता को मामले को खींचने वाले की संज्ञा क्यों दी गयी. जबकि वे संविधान प्रदत्त अपने नागरिक दायित्वों का ही निर्वहन कर रही थीं. न्याय का नैसर्गिक आदर्श कहता है कि कोई दोषी छूटना नहीं चाहिए और किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए. किसी का किसी पीड़ित की मदद करना किसी मामले को खींचना किस प्रकार हुआ, यह सवाल देश में ही नहीं, दुनिया के अनेक सामाजिक मोर्चों पर जेरे बहस है.
बहुतों को यह जानकारी नहीं होगी कि तीस्ता सीतलवाड़ के दादा एमसी सीतलवाड़ देश के पहले अटॉर्नी जनरल थे। उनके परदादा चिमणलाल हरिलाल सीतलवाड़ ने जालियांवाला बाग में 400 हिंदुस्तानियों को मार देने वाले जनरल डायर के खिलाफ ब्रिटिश अदालत में मुकदमा लड़ा और डायर का कोर्ट मार्शल कराया था। यह उनकी तीसरी पीढ़ी है, जिसके नाम के चर्चे आज सारी दुनिया में हैं. गौरतलब है कि 1993 में मुम्बई बम ब्लास्ट में मारे गए हिंदुओं की लड़ाई भी तीस्ता ने ही लड़ी, पीड़ित परिवारों को सरकार से मदद भी दिलाई। यह पूरा परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी आम लोगों की लड़ाई लड़ता रहा है। ये वे लोग हैं, जो देशभक्ति का ढोंग नहीं करते, इनकी तीन पीढ़ियों ने आम लोगों के लिए गोरे अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी है और स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी काले अंग्रेजों से लड़ रही है।
समस्या यह है कि अंग्रेजों के जमाने में वादामाफ गवाह बनने वाले सावरकर जिनके आदर्श हैं, आज देश में वही लोग सरकार चला रहे हैं। देश के लोकतांत्रिक ढांचे का सपोर्ट सिस्टम जो लोकतान्त्रिक संस्थाएं हैं, उनका सत्ताधारी दल के पक्ष में दुरुपयोग किये जाने के सरकार पर आरोप हैं. सरकार को शायद यह लगने लगा है कि हर कोई सिर्फ पैसे के लिए काम करता है और हर किसी को डराया जा सकता है।