यह उन नीग्रो योद्धाओं की कहानी है, जो बहुत गरीब और अशिक्षित थे, लेकिन अमेरिका में रंगभेद के साये में जीने की अपेक्षा जिन्होंने साल भर तक पैदल चलने के कष्ट को बेहतर माना। यह उन वृद्ध नीग्रो स्त्रियों की कहानी है, जिनके पैर थककर चूर हो गये थे, पर जिनकी आत्मा को सुख मिल रहा था।
मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने मई-1958 में ‘Stride Towards Freedom’ नाम की एक किताब लिखी, जो हिंदी में ‘आजादी की मंज़िलें’ नाम से 1966 में प्रकाशित हुई। इस किताब में किंग ने गोरों और कालों के बीच भेदभाव बरतने वाली व्यवस्था में बदलाव की वह कहानी लिखी, जिसमें पचास हजार हब्शियों ने अहिंसा अपनाकर इतिहास रचा था।
यह उनकी कहानी है, जिन्होंने प्रेम के शस्त्र से अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने का अभ्यास किया। यह उनकी कहानी है, जिन्होंने मानवीय दृष्टि से अपना भी मूल्यांकन करना सीखा। यह उन नीग्रो नेताओं की कहानी है, जिनके सिद्धांत और विश्वास अलग-अलग थे, पर जो न्याय एवं वास्तविक अधिकारों के लिए एकसूत्र में बंध गये थे। यह उन संघर्षशील नीग्रो कार्यकर्ताओं की कहानी है, जिनमें बहुत से प्रौढ़ अवस्था को भी पार कर चुके थे, फिर भी जो इस आन्दोलन को सफल करने के लिए दस-दस, बारह-बारह मील पैदल चलते थे और जिन्होंने रंगभेद के सामने समर्पण करने की अपेक्षा साल भर तक पैदल चलने के कष्ट को बेहतर माना। यह उन नीग्रो योद्धाओं की कहानी है, जो बहुत गरीब और अशिक्षित थे, लेकिन अमेरिका में रंगभेद के साये में जीने की अपेक्षा साल भर तक पैदल चलने के कष्ट को बेहतर माना। यह उन वृद्ध नीग्रो स्त्रियों की कहानी है, जिनके पैर थककर चूर हो गये थे, पर जिनकी आत्मा को सुख मिल रहा था। यह उन रंगभेदवादी श्वेतांग नागरिकों की कहानी है, जिन्होंने हर कीमत पर मानवमात्र की समानता का विरोध किया, साथ ही यह उन उदार श्वेतांग नागरिकों की भी कहानी है, जिन्होंने नीग्रो लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर अन्यायपूर्ण रंगभेद का साहस के साथ विरोध किया।
मार्टिन लूथर किंग लिखते हैं कि एक रविवार की दोपहर को मैं हावर्ड विश्वविद्यालय के अध्यक्ष मोदेंकाई जॉनसन का प्रवचन सुनने के लिए फिलाडेल्फिया गया। डॉ जॉनसन हाल ही में भारत की यात्रा करके लौटे थे और मेरे लिए बड़ी दिलचस्पी की बात यह थी कि वे महात्मा गांधी के जीवन और विचारों के संबंध में बोले। उनका व्याख्यान इतना प्रभावोत्पादक और बिजली की तरह झकझोर देने वाला था कि सभा समाप्त होते ही मैंने गांधी जी के जीवन और काम के संबंध में आधा दर्जन पुस्तकें खरीद डालीं।
बहुत से और लोगों की तरह मैंने भी गांधी का नाम सुना था, लेकिन उनके संबंध में गम्भीरता से कभी अध्ययन नहीं किया था। जब मैंने उनके संबंध में पुस्तकें पढ़ीं, तो उनके अहिंसात्मक किन्तु प्रतिकारमूलक आन्दोलनों से मोहित हो गया। खासतौर से नमक सत्याग्रह के लिए की गयी उनकी यात्रा और उनके अनेक उपवासों से मैं बहुत प्रभावित हुआ। सत्याग्रह का पूरा विचार मेरे लिए अत्यन्त असाधारण महत्त्व का था। ज्यों ही मैंने गांधी-दर्शन में गहरा गोता लगाया, त्यों ही प्रेम की शक्ति के बारे में मेरे संदेह दूर होने लगे और मैं पहली बार यह अच्छी तरह देख सका कि सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में प्रेम के सिद्धांत का प्रभावशाली उपयोग हो सकता है। गांधी को पढ़ने के पहले मैं लगभग इस नतीजे पर पहुंच चुका था कि ईसामसीह का सिद्धांत- ‘अगर तुम्हारे एक गाल पर कोई थप्पड़ मारता है तो दूसरा गाल आगे कर दो’ और ‘अपने दुश्मनों से भी प्यार करो’ केवल तभी उपयोगी हो सकता था, जब संघर्ष केवल दो व्यक्तियों के बीच सीमित हो, लेकिन गांधी-साहित्य पढ़ने के बाद मैंने पाया कि मैं कितना गलत था।
गांधी शायद इतिहास के पहले व्यक्ति थे, जिसने ईसामसीह के प्रेम के संदेश को दो व्यक्तियों के बीच से ऊपर उठाकर उसे व्यापक पैमाने पर शक्तिशाली तथा प्रभावकारी सामाजिक शस्त्र बनाया। गांधी के लिए प्रेम एक ऐसा शक्तिशाली हथियार था, जिसके द्वारा सामाजिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया जा सकता है। मैं जिस चीज को महीनों से खोज रहा था, सामाजिक क्रांति का वह तरीका मुझे गांधीवादी प्रेम और अहिंसा के विश्लेषण में प्राप्त हुआ। जैसा बौद्धिक और आध्यात्मिक संतोष मुझे गांधी के अहिंसात्मक प्रतिकार के सिद्धांत में प्राप्त हुआ, वैसा बेंथम और मिल के उपयोगितावाद, मार्क्स और लेनिन के क्रांतिकारी साम्यवाद, हॉब्स के सामाजिक समझौतावाद, रूसो के ‘प्रकृति की ओर’ वाले आशावाद अथवा नीत्शे के अतिमानववाद में भी नहीं मिला। मैं यह अनुभव करने लगा कि शोषित जन-समुदाय के पास आजादी के संघर्ष के लिए गांधी का तरीका ही नैतिक और व्यावहारिक दृष्टि से पक्का तरीक़ा है।
अहिंसा मेरे लिए केवल बौद्धिक तर्क-वितर्क का विषय नहीं रह गयी थी, बल्कि मैं उसके साथ एक जीवन-पद्धति के रूप में बंध गया था। अहिंसात्मक प्रतिकार कायरों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला तरीक़ा नहीं है, बल्कि इसमें प्रतिकार की महान शक्ति निहित है। अगर कोई व्यक्ति अहिंसा के तरीकों का इस्तेमाल भयभीत होकर अथवा हिंसात्मक साधनों के अभाव में करता है तो वह अहिंसक नहीं है। गांधी ने कहा कि अगर हिंसा का विकल्प कायरता ही है, तो उस कायरता की अपेक्षा मैं हिंसा को चुनना पसंद करूंगा।
हमारे शहर में असली तनाव गोरे और काले लोगों के बीच नहीं है, बल्कि न्याय और अन्याय के बीच है, प्रकाश और अंधकार के बीच है। इसलिए विजय न्याय और प्रकाश की शक्तियों की होगी, न कि नीग्रो लोगों की। इस विचार को मानने वाला बदला लेने की भावना के बिना हर तरह की तकलीफों को सहन करने के लिए तैयार रहता है। वह अपने प्रतिपक्षी से, बिना बदले में चोट पहुंचाये ही, चोटें बरदाश्त करने की भी तैयारी रखता है। बुनियादी महत्त्व की चीजें केवल तर्क-वितर्क से प्राप्त नहीं की जा सकतीं, बल्कि वे अनेक कष्ट सहन करने के माध्यम से ही पायी जा सकती हैं। ऐसा गांधी ने कहा है। प्रतिपक्षी का हृदय बदलने के लिए प्रेम, वन्य-न्याय से ज्यादा शक्तिशाली उपाय है। अहिंसा के दर्शन के केन्द्र में प्रेम का सिद्धांत निहित है।