सांप्रदायिक सद्भाव और सौहार्द्र को लिखना और जीना दो अलग अलग पहलू हैं, ऐसा होना नहीं चाहिए पर ऐसा ही है। ऐसा साहित्य पूरी दुनिया में रचा जा रहा है, जिसके सहारे हम कई बार इंसानियत को महसूस करते हैं और उसे जी पाने का अभ्यास करते हैं। इंसानियत वह धागा है, जिस पर हर रंग के गाढ़ेपन और हल्केपन के शेड्स दिये जा सकते हैं, सिवाय साम्प्रदायिकता के।
ज़की अनवर इंसानियत के इन्हीं धागों से बुनी खूबसूरत चादर को जीवन भर गुनते-बुनते और अपने अफसानों में दर्ज़ करते रहे। 12 अप्रैल 1979 को उनकी हत्या हुई, जिसकी कुसूरसवार हैं धर्म के श्रेष्ठताबोध में जीने वाली कट्टरपंथी जमातें। यह हम सभी के लिए शर्म का बायस हमेशा बना रहेगा कि इंसानियत और प्रेम के जज़्बे को गुलज़ार करने वाले शख़्स को हमारी तुच्छ पहचान और दंभ ने हमसे छीन लिया। एक लेखक जो मध्य वर्ग से आता था, अपनी हत्या के एक दिन पहले, जबकि साम्रदायिक तनाव मौजूद था, तब भी वह एक अधूरी कहानी हमारे लिए छोड़ गया। आखिर क्या ज़रूरत आन पड़ी कि कट्टरपंथियों के हौसले पस्त करने के लिए उसे अनशन की सूझी? वे कौन से हालात थे कि धरने में उसके पीछे सिर्फ गिने-चुने लोग ही थे, तब भी वे अंजाम से बेखबर सांप्रदायिक सद्भाव के लिए डटे रहे? निश्चित ही वह उनके इंसान होने का दृढ़ निश्चय रहा होगा, जिसके बूते वे आज भी हम सबकी स्मृति का हिस्सा हैं।
1975 से 1979 तक के वक्फे में कई बातें घटित हो रही थी, कई वाकये घट रहे थे, जिनकी परिणति रही ज़की अनवर की हत्या। समाज के प्रति अपने विश्वास को अंतिम सांस तक बचाए रखने की उनकी स्पष्ट वजह यही रही होगी कि आने वाली नस्लें विश्वासघात न करें। अपने जीवन में उन्होंने सैकड़ों कहानियां लिखीं, जिनमें से लगभग 300 कहानियां ट्रेस हुई हैं। ज़की अनवर पर जमशेदपुर के अफसानानिगार अख़्तर आज़ाद की एक किताब भी प्रकाशित हुई है। जावेद इकबाल ने ज़की अनवर की कहानियों का हिन्दी अनुवाद किया है। अभी तक मात्र 15 कहानियों का अनुवाद हुआ है, इस काम को आगे ले जाने की ज़रूरत है।
– अर्पिता