ईरान की औरतों ने कट्टरवाद और पितृसत्तात्मक ताकतों के सामने लोकतांत्रिक जंग का ऐलान किया है. हमारे देश के नागरिक इस संघर्ष से प्रेरणा लेकर धर्म की कृत्रिम दीवारों को तोड़ने के लिए साथ खड़े हो सकते हैं. आखिरी सवाल हमारी स्वतंत्रता का होना चाहिए, खासकर तब जब सवाल लडकियों की शिक्षा दीक्षा का हो. हिजाब पहनकर हो या हिजाब जलाकर, कम से कम एक बात पर तो सहमति हो सकती है कि लड़कियों के लिए शिक्षा अनिवार्य है.
हिजाब के विरोध में ईरान में चल रहा जनांदोलन इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में है. मेहसा अमीनी नामक एक 22 साला युवती को हिजाब न पहनने के ‘जुर्म’ में ईरान की पुलिस ने हिरासत में लिया था, जहाँ उसकी मौत हो गयी. इस दुखद घटना के विरोध में हजारों की तादात में औरतें सड़कों पर निकलकर ईरान में अनिवार्य ‘हिजाब कानून’ का जमकर विरोध करने लगीं. मर्दों ने भी उनका साथ दिया और आज पूरे देश में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. पुलिस और सुरक्षा बलों की बंदूकों से 40 प्रदर्शनकारियों की जानें भी गयी हैं. वैसे तो ईरान दुनिया भर में इस्लामिक सामाजिक प्रणाली और उस पर आधारित कट्टर राजकीय प्रशासन के लिए 1971 से ही मशहूर है, लेकिन अब औरतों की अगुवाई में जनता की आज़ादी की इन आवाजों के चलते चीज़ें कुछ बदलती नज़र आ रही हैं. भारत से तुलना करें तो पिछले दिनों कर्नाटक के बहाने देश भर में हिजाब पर छिड़ी बहस और बवाल तथा ईरान की घटनाओं में काफी हद तक समानताएं भी हैं और कुछ विशेष फर्क भी हैं.
सबसे पहले तो इस हिजाब या बुरका या पर्दा या घूँघट के कांसेप्ट पर रोशनी डालनी ज़रूरी है. इतिहास बताता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के चलते औरतों पर दुनिया भर में तमाम पाबंदियां लगायी जाती रही हैं. सभी मुल्कों एवं समाजों में औरत के दायरे मर्द ही तय करते आये हैं. वे कॉलेज जायेंगी या नहीं, वे नौकरी करेंगी या नहीं, वे खुलकर हंस सकती हैं या नहीं, उन्हें कैसे कपड़े पहनने चाहिए, कैसे नहीं, वे घर से बहार अकेले जा सकती हैं या नहीं…. जन्म से लेकर ज़िन्दगी के हर पड़ाव, हर मुकाम तक पुरुष प्रधान समाजों और संस्थानों ने औरत के लिए नियम तय कर रखे हैं. यही वजह है कि समाज, संस्कृति और धर्म के नाम पर औरत को जकड़ के रखा जाता है. उसकी दिनचर्या एवं जीवन शैली में कहीं भी इनके बनाये मापदंड की अवहेलना हुई, तो ईरान की मेहसा अमीनी जैसा हाल होगा!
ईरान में हिजाब विरोधी प्रदर्शन में महिलाओं ने हिजाब को आग के हवाले किया
इस्लाम में बुरका अनिवार्य नहीं है. अगर ऐसा होता तो दुनिया भर की सारी मुसलमान औरतें बुर्के या हिजाब में होतीं! फिर हकीकत में पवित्र कुरान में ऐसा कहीं कहा भी नहीं गया है. मोरक्को की फ़ातेमा मेर्निस्सी मेरी प्रिय इस्लामिक आलिमा हैं. वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर की एक मशहूर नारीवादी आन्दोलनकारी और लेखिका भी हैं. उन्होंने गहरे अध्ययन के बाद इस हकीकत को उजागर किया है. पवित्र कुरान में परदे के लिए सितर शब्द का इस्तमाल किया गया है. दो स्थानों के अलावा ये ज़िक्र औरतों के परिप्रेक्ष्य में कहीं है ही नहीं. ज़्यादातर सन्दर्भों में अल्लाह ने मर्दों को संबोधित करते हुए बात कही है. यहाँ सितर शब्द का प्रयोग अलग-अलग अर्थों में मिलता है; जैसे दरबार में बादशाह और दरबारियों के बीच रेशमी पर्दा; वजीर की अकल पर पर्दा; दो कमरों के बीच विभाजन के अर्थ में परदा इत्यादि. फिर इस्लाम के नाम पर औरत को सर से पैर तक ढक देना या हिजाब न पहनने पर जेल में डाल देना सरासर ज्यादती है और उसके मानवीय अधिकारों का हनन है.
लेकिन इसके उलट एक ज्यादती भारत में भी हुई, जब हिजाब पहनने के कारण कर्नाटक में एक कॉलेज की छात्राओं को क्लासरूम से बाहर रखा गया, यहाँ तक कि परीक्षा से भी वंचित रखा गया. यह छात्राओं के शिक्षा के अधिकार, अभिव्यक्ति के अधिकार, निजता के अधिकार एवं धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है. यह भेदभावपूर्ण एवं अमानवीय आचरण भी है. सभी भारतीय नागरिकों को उम्मीद है कि जल्द ही सुप्रीम कोर्ट कर्नाटक के उडुपी कॉलेज प्रशासन के इस भेदभावपूर्ण एवं असंविधानिक रवैये पर रोक लगाएगा, ताकि मुसलमान छात्राएं फौरन स्कूल जाना शुरू करें और परीक्षा भी दें.
हमारे देश में आज धार्मिक ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति का प्रभाव है. आम भारतीय, फिर वे चाहे हिन्दू हों, मुसलमान हों या ईसाई हों, स्त्रियां हों या पुरुष हों, सभी इस राजनीति की चक्की में पिस रहे हैं. उडुपी के शिक्षा संसथान में भी कुछ ऐसा ही हुआ. छात्राओं के हिजाब पर अभिभावकों, शिक्षकों और प्रिंसिपल के बीच आपसी बातचीत से हल निकाला जा सकता था, लेकिन राजनीति के चलते ऐसा हुआ नहीं. यूनिफार्म के नाम पर छात्राओं को क्लास में प्रवेश करने से रोका गया. जिले में कुछ कट्टर धार्मिक गुटों ने इस मामले को और भी उछाला और अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने की भरपूर कोशिश की. मामला जब बहुत गरमा गया और कर्नाटक में हिन्दू-मुस्लिम आमने सामने आ गए, तो मामला कोर्ट पहुंचा. हाईकोर्ट ने स्कूल में यूनिफार्म के नियम को सर्वोपरि ठहराया. रूढ़िवाद के दबाव में माँ-बाप ने छात्राओं को स्कूल जाने से रोक दिया. और इस प्रकार उन छात्राओं का भविष्य कट्टरवाद एवं धर्म की राजनीति की बलि चढ़ गया. अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है.
सवाल यह उठता है कि हमारा भारत तो धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक देश है. हम ईरान की तरह धर्म-तंत्र पर आधारित देश नहीं हैं, तो फिर भारत की बेटियों को शिक्षा से वंचित क्यों किया जा रहा है? दोनों तरफ के रूढ़िवादी, पुरुषवादी तथा स्त्रीविरोधी संगठनों को हमारे देश में खुली छूट क्यों मिल रही है? धर्मनिरपेक्षता या सेक्यूलरिज्म भारतीय संविधान का अटूट सिद्धांत है. देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वंतंत्रता दी गयी है. भारतीय समाज धर्म एवं संस्कृति बहुल समाज है. सत्ता में बैठे प्रतिनिधियों के लिए निष्पक्षता से व्यवहार करना बाध्यता है. सेक्यूलरिज्म का अर्थ ही यही है कि राज्य एवं लोकतान्त्रिक संस्थान किसी भी धर्म विशेष के साथ भेदभाव नहीं कर सकते, नागरिकों को अपने-अपने धर्म के पालन-आचरण की छूट है. जब संसद में भगवाधारी सांसद बैठ सकते हैं तो फिर हिजाबी छात्राओं को क्लास-रूम में प्रवेश करने से क्यों रोका जा रहा है? क्लास-रूम की तरह ही संसद भी तो सार्वजनिक जगह है, वैसे ही जैसे मुख्यमंत्री कार्यालय! मुख्यमंत्री भगवा पहन सकते हैं और विधानसभा में बैठ सकते हैं तो फिर हिजाबी छात्राएं क्लास-रूम में क्यों नही बैठ सकतीं? यह भेदभावपूर्ण और नफरत की राजनीति नहीं तो फिर और क्या है?
में हिजाब के सख्त खिलाफ हूँ और चाहती हूँ कि देश की सभी लड़कियां अपने फैसले खुद लेने में सक्षम बनें. हमारे देश में पिछले कुछ दशकों में इस्लामीकरण एवं अरबीकरण का प्रभाव बढ़ा है, जिसके चलते हिजाब जैसी प्रथा आई है. वैसे हमारी नानी-दादी हिजाब नहीं पहनती थीं. वे सभी सलवार-कमीज़ या साड़ी पहनती थीं और मौके के अनुरूप सिर ढक लेती थीं. उनके पहनावे एवं व्यवहार में कट्टरता नहीं थी. उन्हें यह डर नहीं सताता था कि मेरे बाल दिख जायेंगे तो मैं दोजख में चली जाऊंगी. वे अपनी पसंद के मुताबिक कपड़ा पहनती थीं और अच्छे व्यवहार, आचार एवं विचार पर जोर देतीं थीं. उन्होंने हमें सिखाया कि इस्लाम इन्साफ और शांति का मज़हब है. सच बोलना, पड़ोसी की मदद करना, अच्छा इंसान बनना ही एक अच्छे मुसलमान की निशानी है. लेकिन इस्लाम के राजनीतीकरण के चलते पिछले कुछ अरसे में सारा जोर हिजाब और दाढ़ी जैसी बाह्य चीज़ों पर दिया जा रहा है. मानवता, रहमदिली, संवेदना और न्याय जैसे इंसानी इस्लामी मूल्यों की जगह दिखावे और पहनावे ने ले ली है. लड़कियों के लिए शिक्षा ज़रूरी है, फिर वे चाहे हिजाब पहनें, चाहे न पहनें. लड़कियां आगे बढ़ेंगी तो समाज और देश आगे बढ़ेगा. वक़्त का तकाजा है कि लड़कियों को पढ़ने दिया जाय. वक्त का तकाजा यह भी है कि रूढ़िवाद और धर्म की राजनीति से देश को निजात मिले.
ईरान की औरतों ने कट्टरवाद और पितृसत्तात्मक ताकतों के सामने लोकतांत्रिक जंग का ऐलान किया है. हमारे देश के नागरिक भी इस संघर्ष से प्रेरणा लेकर धर्म की कृत्रिम दीवारों को तोड़कर साथ मिलकर खड़े होंगे या नहीं, यह तो वक़्त ही बताएगा. लेकिन कम से कम हम एक बात पर तो सहमत हो सकते हैं कि लड़कियों के लिए शिक्षा अनिवार्य है, फिर वे लड़कियां चाहे हिजाब में हों, चाहे जीन्स में हों.
-ज़किया सोमन