न्याय, न्यायालय और न्यायमूर्ति

‘समय आ गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (देशद्रोह) को असंवैधानिक करार दिया जाए।’ ‘यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) जैसा कानून वर्तमान स्वरूप में कानून की किताब में नहीं रहना चाहिए।’


सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश दीपक गुप्ता एक वेबिनार में बोल रहे थे, जिसका विषय था -‘‘लोकतंत्र, असहमति और कठोर कानून’’। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने देशद्रोह और यूएपीए के प्रावधानों की अस्पष्टता और परिणामस्वरूप इनका दुरुपयोग कैसे किया जाता है, इस पर अपने विचार रखते हुए कहा- ‘भारतीय संविधान दुनिया के उन कुछ संविधानों में से एक है, जिसमें 32 जैसा आर्टिकल शामिल है, जिसके तहत मौलिक अधिकारों को लागू करवाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाने का अधिकार अपने आप में एक मौलिक अधिकार है। जब आप इन भूमिकाओं को एक साथ जोड़ते हैं, तो इस बात पर आना बहुत आसान हो जाता है कि जो कानून बहुत अस्पष्ट हैं, उन्हें अदालत द्वारा यह कहकर हटा दिया जाना चाहिए कि अगर आप ये चीजें करेंगे, तभी कानून मान्य होगा, अन्यथा ऐसा नहीं होगा। देशद्रोह और यूएपीए, दोनों कानूनों में अस्पष्टता, अभियोजन एजेंसी को लोगों पर आरोप लगाने में मदद करती है।’


सूरत का मामला


न्यायाधीश ने यूएपीए के तहत गिरफ्तारी की बढ़ती प्रवृत्ति और लंबे समय तक जेल में रखने की प्रवृत्ति को ‘चिंताजनक’ बताया, जबकि बाद में ऐसे मामलों में आरोपी बरी हो जाता है या उसे आरोपमुक्त कर दिया जाता है। उन्होंने महाराष्ट्र एटीएस द्वारा अगस्त 2012 में नांदेड़ से गिरफ्तार किये गये मुहम्मद इलियास और मोहम्मद इरफान के मामले का उल्लेख किया, जिसकी गिरफ्तारी को आग्नेयास्त्रों की जब्ती से जोड़ा गया था और कहा गया था कि वे राजनेताओं, पुलिस अधिकारियों और पत्रकारों को मारने के लिए लश्कर-ए-तैयबा द्वारा रची गयी साजिश का हिस्सा थे। उन्हें हाल ही में एनआईए कोर्ट ने बरी कर दिया था। उन्होंने यह भी बताया कि कैसे एक मामले में गिरफ्तारी के 19 साल बाद सूरत के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ने सभी 127 लोगों को स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) जैसे ‘प्रतिबंधित संगठन को बढ़ावा देने’ के आरोप से बरी कर दिया।
न्यायमूर्ति गुप्ता ने एक मामले का उल्लेख किया कि ‘नताशा नरवाल (एंटी-सीएए कार्यकर्ता) को जमानत नहीं मिली, लेकिन इस अवधि के दौरान उसके पिता की मृत्यु हो गई। सिद्दीकी कप्पन (एक दलित महिला के कथित सामूहिक बलात्कार-हत्या को कवर करने के लिए हाथरस जाने वाले पत्रकार को अक्टूबर 2020 में गिरफ्तार किया गया था) की मां की मृत्यु हो गई, जबकि वह जेल में था। 84 वर्ष के फादर स्टेन स्वामी (भीमा कोरेगांव आरोपी, जिनकी हिरासत में मृत्यु हो गई), पार्किंसंस रोग से पीड़ित थे और उन्हें इलाज के लिए जमानत की जरूरत थी लेकिन जमानत नहीं मिली। क्या हमने मानवता का सारा स्पर्श खो दिया है? इसमें कोई संदेह नहीं है कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि उसे जेल में उचित इलाज मिले, लेकिन आप बाहर क्यों नहीं आ सकते? जमानत देते समय यह विचार होता है कि आरोपी भागे नहीं और गवाहों को प्रभावित न करे एवं उसे जांच के लिए उपलब्ध होना चाहिए। ऐसे में अगर अदालत फादर स्टेन स्वामी को जमानत देती तो उसके पास इस तरह के प्रतिबंध लगाने की पर्याप्त शक्ति थी।’


न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि ‘मेरी राय में, इस कानून का एक प्रावधान जमानत देने के लिए उच्च न्यायालयों की शक्ति को छीन लेता है और आरोपी व्यक्ति को न्यायिक समीक्षा की शक्ति से वंचित करता है, इसलिए यह असंवैधानिक है। आप एनडीपीएस अधिनियम के तहत जमानत के लिए शर्तें निर्धारित कर सकते हैं, लेकिन यहां शर्त यह है कि आपको धारा 173 के तहत दायर रिपोर्ट में कही गई हर बात पर विश्वास करना होगा और अगर आप उन बातों को मानते हैं, जो पुलिस ने १७३ की रिपोर्ट में कहीं है, तो कोई जमानत नहीं दी जा सकती। अपने स्तर पर हर पुलिस अधिकारी यह सुनिश्चित करेगा कि १७३ की रिपोर्ट में प्रथम दृष्टया मामला बनता हो।’ यह देखते हुए कि यूएपीए का आवेदन राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से जुड़ा है।


न्यायाधीश ने कहा कि जिला अदालतें जमानत देते समय सोशल मीडिया पर आने वाली प्रतिक्रियाओं और जनता की राय के बारे में चिंतित हो सकती हैं। उन्होंने आग्रह किया कि ‘उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय को आगे आकर नेतृत्व करना होगा, क्योंकि न्यायालयों की दो भूमिकाएं होती हैं – न्यायिक भूमिका और नागरिकों के मानवाधिकारों के रक्षक और समर्थक होने की भूमिका।


कानून के दुरुपयोग की गुंजाइश न हो


यद्यपि न्यायमूर्ति गुप्ता ने स्वीकार किया कि हम इस तथ्य पर पूरी तरह से अपनी आँखें बंद नहीं कर सकते हैं कि आतंकवाद आज एक चिंता का विषय है। उन्होंने जोर देकर कहा कि किसी भी आतंकवाद विरोधी कानून को बहुत सख्ती से लागू किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि जब बॉम्बे हमले जैसा कुछ होता है, तो यह हम सभी के लिए चिंताजनक है। मैं यह कहने की हद तक नहीं जाऊंगा कि किसी अधिनियम की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। लेकिन कानून को बहुत सावधानी से लागू किया जाना चाहिए, इसका उपयोग केवल आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ किया जाना चाहिए। इसे इस तरह से तैयार किया जाना चाहिए और अदालतों द्वारा इस तरह से व्याख्या की जानी चाहिए कि इसके दुरुपयोग की कोई गुंजाइश न रहे।


उन्होंने यह भी राय व्यक्त की कि ‘यूएपीए’ जैसे कानून को कानून की किताब में उस रूप में नहीं रहना चाहिए; जिस रूप में यह अभी है। लालबहादुर शास्त्री ने कहा था कि अगर मुझे नागालैंड और मणिपुर में समस्याओं से निपटना है, तो मुझे इस तरह के ऐक्ट की आवश्यकता नहीं है, बल्कि मैं आमने-सामने बात करके इससे निपट सकता हूं।


कानून की समीक्षा आवश्यक


न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि अब समय आ गया है कि कानून के उस प्रस्ताव पर फिर से विचार किया जाये, जिसका अदालतों ने हमेशा पालन किया है। जब किसी कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी जाती है तो केवल इस आधार पर कि दुरुपयोग की गुंजाइश है, कानून को रद्द नहीं किया जा सकता है लेकिन जब कभी दुरुपयोग हो, तब अदालतें इसकी जांच कर सकती हैं। मुझे लगता है कि कानून के इस प्रावधान पर फिर से विचार करने की जरूरत है, अगर कोई कानून घोर दुरुपयोग करने में सक्षम है और अदालत के सामने यह साबित हो गया है कि इसका दिन-प्रतिदिन दुरुपयोग किया जा रहा है, तब उस कानून की समीक्षा आवश्यक हो जाती है।


मणिपुर के उस सज्जन को देखिए, जिसने कहा था कि गोमूत्र से कोरोना का इलाज नहीं होगा और उसे एनएसए के तहत सलाखों के पीछे डाल दिया गया (सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के राजनीतिक कार्यकर्ता एरेन्ड्रो लीचोम्बम को रिहा करने का आदेश दिया था, जिसे कड़े राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिया गया था क्योंकि उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट में कहा था कि गोबर या गोमूत्र से कोरोना का इलाज संभव नहीं होगा)। जज ने पूछा कि क्या हम पुलिसराज में रह रहे हैं?


अदालतें अपनी शक्ति का उपयोग करें


न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि न्यायालय को पहले के कई फैसलों पर फिर से विचार करना होगा और देखना होगा कि जहां कानून को चुनौती दी गई है, अगर वह घोर दुरुपयोग करने में सक्षम है, तो अदालत आर्टिकल 142 के तहत अंतर्निहित अपनी शक्तियों का उपयोग करते हुए,इन कानूनों के तहत मामला शुरू करने के लिए दिशानिर्देश निर्धारित कर सकती हैं। जस्टिस गुप्ता ने एक महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किया कि ‘यूएपीए के तहत गलत तरीके से कैद होने के मद्देनजर मुआवजे का भुगतान करना होगा, जैसे कि मणिपुर के इस सज्जन का मामला था। डीएम को भुगतान करने के लिए दायित्व के साथ बांधा जाना चाहिए ताकि अगली बार जब उनके राजनीतिक गुरु उनसे किसी आदमी को सलाखों के पीछे करने के लिए कहें तो वह ऐसा करने से पहले सोचेंगे, क्योंकि मुआवजा उनकी अपनी जेब से जाएगा। अदालतों को कानून प्रवर्तन एजेंसियों के साथ भी सख्त होना चाहिए, न कि उन लोगों के साथ, जो इन कानूनों के शिकार हैं।


दिल्ली हाईकोर्ट का उल्लेखनीय फेसला


न्यायाधीश ने खेद व्यक्त किया कि कुछ न्यायाधीशों को अभी भी यह नहीं पता है कि आतंकवाद क्या है? और देशद्रोह क्या है? उन्होंने सीएए विरोधी तीन छात्र कार्यकर्ताओं को जमानत देने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले की सराहना की। न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि ‘मैं बहुत खुश हूं कि दिल्ली हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया। यह बहुत अच्छी तरह से लिखा गया फैसला है। यह यूएपीए के संबंध में अपनाये जाने वाले दृष्टिकोण का सबसे अच्छा विश्लेषण हो सकता है। इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला उल्लेखनीय है, जिसमें कहा गया कि यूएपीए के तहत कोई मामला नहीं बनता है। उन्हें 43डी पर विचार करने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यह कोई आतंकवादी गतिविधि नहीं है। अदालत ने कहा कि आरोपी सीएए के खिलाफ कुछ विरोध प्रदर्शन, ‘चक्का-जाम’ आयोजित कर रहे थे, तो यूएपीए लगाने का सवाल ही कहां पैदा होता है!

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