यदि हमारी शिक्षा हमें अपने समाज के योग्य नागरिक नहीं बना रही है, तो निस्संदेह शिक्षा नीति में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है. एक तरफ जहां बाज़ार में आधुनिक और उच्च शिक्षा तथा तकनीकी सूचनाओं, जानकारियों से लैस प्रोफेशनल्स की संख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर समाज में गुणवत्तापूर्ण एवं सार्थक शिक्षा के आभाव में सार्वजनिक जीवन के लिए अपेक्षित नागरिकताबोध का निर्माण केंचुए की गति से हो रहा है. ऐसे में बढ़ती जनसंख्या, बढ़ते बाजार, केन्द्रित उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था, पर्यावरण के नुकसान और हाशिये पर पड़े करोड़ों लोगों के अस्तित्व के सवालों के समाधान अगर नहीं मिलते, तो इस शिक्षा व्यवस्था का क्या फायदा?
सुषमा शर्मा
अपने चारों तरफ नजर डालें तो कुछ दृश्य अनायास ही सहजता से दिख जाते हैं. अच्छी भली सड़क पर थूककर पढ़े लिखे लोग भी शर्मिंदगी महसूस नहीं करते. खाद्य पदार्थों के कचरे, कागज़ के टुकड़े आदि फेंककर सार्वजनिक स्थानों को गंदा करने के मामले में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक में कोई अंतर नहीं है. रेल-टिकट के लिए लगने वाली कतार को तोड़कर लोग बुकिंग विंडो तक पहुंच जाते हैं. मन्दिर से पूजा करके निकले और भिखारी को गाली देते हुए आगे निकल जाते हैं. परीक्षा केन्द्रों पर नकल करना और कराना उत्तर प्रदेश, बिहार के अनेक जिलों में उद्योग की शक्ल ले चुका है. सामंती किस्म की पोशाकों और तलवारों के साथ सजकर आधुनिक वाहनों में सवार तरुणाई, अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती है. नागरिकता बोध से जिनका कोई लेना देना ही नहीं, ऐसी ही भीड़ को साथ लेकर हम विश्व गुरू बनने के ख्वाब देख रहे हैं.
आजादी के 75 वर्ष होने जा रहे हैं और आज भी देश के हर घर में शौचालय नहीं है, टैंकरों के जरिये उपलब्ध पेयजल पर आश्रित गांवों की संख्या हर वर्ष बढ़ ही रही है. हताश-निराश किसानों की आत्महत्याएं आज भी नहीं रुकीं. हमें क्या चाहिए, यह हमें पता ही नहीं है. हमें इस बात का चिन्तन जरूर करना चाहिए कि एक जिम्मेदार नागरिक के नाते हम सार्वजनिक जीवन में कौन सी गुणवत्ता हासिल कर पाए! हमारी शिक्षा-व्यवस्था, जिसके ऊपर नागरिक समाज को रचने की जिम्मेदारी है, उसके सामने कौन सी चुनौतियां उपस्थित हैं! क्या शिक्षा के लक्ष्य तय करते समय सार्वजनिक जीवन के हमारे आचरण और अनुशासन को अनदेखा किया जाना चाहिए?
यदि हमारी शिक्षा हमें अपने समाज के योग्य नागरिक नहीं बना रही है, तो निस्संदेह शिक्षा नीति में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है. एक तरफ जहाँ बाज़ार में आधुनिक और उच्च शिक्षा तथा तकनीकी सूचनाओं, जानकारियों से लैस प्रोफेशनल्स की संख्या बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर समाज में गुणवत्तापूर्ण एवं सार्थक शिक्षा के आभाव में सार्वजनिक जीवन के लिए अपेक्षित नागरिकताबोध का निर्माण केंचुए की गति से हो रहा है. ऐसे में बढ़ती जनसंख्या, बढ़ते बाजार, केन्द्रित उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था, पर्यावरण के नुकसान और हाशिये पर पड़े करोड़ों लोगों के अस्तित्व के सवालों के समाधान अगर नहीं मिलते, तो इस शिक्षा व्यवस्था का क्या फायदा?
अधिकतर लोग आज की शिक्षा व्यवस्था की खामियों को जानते, समझते हैं और अपनी क्षमता तथा हित को समझते हुए, अभिभावक एवं शिक्षा संस्थाएं विकल्प की दिशा में सोच भी रहे हैं. किसी व्यक्ति या किसी खास आर्थिक, सामाजिक समूह को लक्षित करने से बात नहीं बनेगी, व्यापक सामाजिक न्याय को ध्यान में रखकर, भविष्य की जरूरतें देखते हुए ही शिक्षा का खाका बनाना जरूरी है. विडम्बना ही है कि हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार स्वीकार किये जाने के बावजूद इतने बड़े पैमाने पर निजीकरण एवं वर्गीकरण संभव हो सका. यह बेहद गम्भीर सवाल है कि समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का समान बंटवारा किस प्रकार हो.
इतना लम्बा समय बीत जाने के बावजूद एक राष्ट्र के नाते हम हर बच्चे के लिए मुफ्त एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की मुलभूत जरूरत पूरी नहीं कर पाये हैं. इसका प्रमुख कारण सामाजिक न्याय के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है. अब तो शिक्षा जैसा पवित्र काम भी वैश्विक बाजार की स्पर्धा के अनुकूल, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की तर्ज पर निपटाया जा रहा है. स्वातंत्र्य, समता, बंधुत्व एवं न्याय के मूल्यों पर आधारित, विविधता में एकता का अनुभव देने वाली, उन्नत मानवीय संस्कृति विकसित करने वाली शिक्षा के लिए देश का नागरिक होने के नाते हम संवैधानिक रूप से कटिबद्ध थे. किन्तु शायद इन जीवन मूल्यों के अर्थ खुद हम ही नहीं समझ नहीं सके. अगर समझ पाए होते तो अपने घर, अपने पड़ोसी, अपने विद्यालय, अपने कार्यालय, आपसी संबंध एवं सार्वजिक स्थानों पर अपने बर्ताव के प्रति हम अधिक सचेत होते.
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का पैमाना क्या है, इसके किन-किन आयामों पर विचार होना जरूरी है, गुणवत्ता का विकास कैसे हो सकता है, इस बारे में हमारी पूरी स्पष्टता नहीं है. अपने बच्चे के लिए विद्यालय का चुनाव करते समय अभिभावक यह नहीं सोचते कि इस विद्यालय संस्कृति का हमारे बच्चे और अंततः हमारे समाज पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है. यही कारण है की पूंजीवादी बाजारों में पटे विद्यालयों के इश्तिहार पढ़कर वे उनके शिकार बनते हैं. संवैधानिक मूल्यों पर आधारित कानून बनाकर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था बनाना शासन का काम है, पर इस कानून का स्वेच्छा से पालन करना शिक्षा संस्थाओं एवं नागरिकों का कर्तव्य है. यह काम समान न्याय दृष्टि से करने के बजाय, जब शासन विशिष्ट वर्ग, विचार या समूह के स्वार्थ के लिए काम करने लगे, तब जागृत नागरिक समाज को उसके खिलाफ आवाज उठानी चाहिए.
हर अभिभावक अपने बच्चे की बौद्धिक क्षमता का विकास करना चाहता है. इस दृष्टि से भाषा, अंग्रेजी, गणित एवं विज्ञान विषयों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है. भाषा तथा गणित नींव निर्माण के विषय होते हैं. पर ये कैसे सिखाये जायं, इसका समुचित शिक्षाशास्त्र है. ग्रामीण एवं कमजोर आर्थिक व सामाजिक समूह के अभिभावक अपने बच्चों की सर्वोत्तम शिक्षा के लिए आधा पेट खाकर भी उन्हें अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में भेजते हैं. वहां की बाहरी चमक दमक और कठोर अनुशासन को ही वे असली गुणवत्ता समझते हैं. असल में ऐसे अधिकतर विद्यालयों में पढाने का तरीका समझकर पढ़ाया ही नहीं जाता. पूरी शिक्षा पाठ्यपुस्तक केन्द्रित एवं कंठस्थ करने की योग्यता के आधार पर होती है. विज्ञान जैसा विषय भी प्रयोग के बिना ही पढ़ा दिया जाता है. ग्रामीण क्षेत्रों के अनेक मान्यता प्राप्त प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों की स्थिती अत्यंत बुरी है. बोर्ड परीक्षाओं में नकल करके लिखने की बीमारी महामारी का रूप ले बैठी है.
शिक्षा विभाग द्वारा डिजिटलाइजेशन की जल्दबाजी, शिक्षकों पर गैरजरूरी तनाव लाद रही है. शिक्षा में गुणवत्ता लाने के लिए इस भ्रम से छुटकारा पाने की जरूरत है. इसके कुछ फायदे जरूर हैं, पर यह अध्ययन का मन्त्र नहीं है. शिक्षक का अद्यतन विषय-ज्ञान, अध्यापन पद्धति, उसकी कल्पनाशक्ति के लिए खुला आकाश, विद्यार्थियों का स्थानीय वातावरण से भावनात्मक रिश्ता और इन चीजों के योग्य आकलन के बाद बनी शिक्षा पद्धति ही योग्य परिणाम दे पाएगी. इसे सूचना एवं तकनीकी ज्ञान से जोड़ा जाय, तो अधिक उपयुक्त होगा.
सामाजशास्त्र और पर्यावरण के विषय जीवनदृष्टि विकसित करते हैं. आसपास की भौतिक दुनिया को देखने का आधार इन विषयों के अध्ययन से मिलता है. पर विद्यालयों में ये विषय भी मात्र जानकारी देने तक सीमित रखे जाते हैं. असली दुनिया से मेल बिठाकर विचार करने की क्षमता विकसित करने का प्रयास अधिकतर विद्यालयों में नहीं होता. पाठ्यपुस्तक आधारित जानकारी केवल परीक्षाओं की दृष्टि से कराई जाती है. ज्ञान नहीं मिलता. गणित, भाषा, विज्ञान, सामाजशास्त्र, पर्यावरण की तरफ बच्चों का ध्यान ही नहीं जाता. शिक्षा के जरिये व्यक्तित्त्व का सर्वांगीण विकास करके अपना एवं समाज का जीवन भी सुंदर बनाना है, यह व्यापक सोच ही धुंढली होती जा रही है. बच्चों को स्पर्धा के लिए तैयार करना, अधिक पैकेजे एवं प्रतिष्ठा देने वाले व्यवसायिक कोर्स चुनना ही प्रमुख ध्येय हो जाता है. समाज से जुड़ने, आसपास की कुरूपता, दु:ख, दीनता को दूर की क्षमता कुंठित की जाती है. कई अभिभावक तो आसपास की कुरूप दुनिया से अपने बच्चों को दूर रखा जाना ही पसंद करते हैं. आसपास की दुनिया, अच्छी हो या बुरी, अधिकतर आदमी की ही बनाई हुई है, उसे ठीक करना भी हमारे ही हाथ में है. हम उसी के हिस्से हैं, यह बात बच्चों को समझाई जानी चाहिए.
जन्म से हर बच्चा एक-सा नहीं होता. उसको विरासत में मिली सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अलग अलग होती है. हर एक को मिली बुद्धि व चेतना का स्तर भी अलग-अलग होता है. इसलिए हर एक की पढ़ने लिखने की क्षमता भी भिन्न होती है. एक ही पाठ्यपुस्तक, एक ही अध्यापन एवं मूल्यांकन पद्धति का इस्तेमाल करके सभी के साथ न्याय कैसे होगा? एक ही पैमाने से की जाने वाली मूल्यांकन पद्धति से अनेक बच्चों को अकारण अत्यधिक तनाव का सामना करना पड़ता है. भाषा, गणित जैसे विषय-ज्ञान को छोड़कर बाकी गुणों के विकास के लिए आज की व्यवस्था में अवसर हैं ही नहीं. आदिवासियों, श्रमिकों एवं वंचितों के जीवन के प्रति आदर की भावना, उनके सालों के अनुभव से उपजे ज्ञान को किस पद्धति से कैसे बच्चों की पढ़ाई में शामिल किया जाए, इस दिशा में प्रयास होने चाहिए. हम एक अज्ञानी समाज में रहते हैं, इस सोच से बच्चे मानसिक स्तर पर मुक्त हों, ऐसी पढ़ाई होनी चाहिए. बुनियादी सुविधाओं से वंचित होकर वे शिक्षा से बाहर न हों इसके लिए प्रयास होने चाहिए. शिक्षा का स्वरूप एवं मूल्यांकन की पद्धति में मुलभूत बदलाव अत्यंत जरूरी है.
आज की दुनिया में ज्ञान के लेन देन का अत्यंत उन्नत शास्त्र विकसित हो चुका है. व्यावहारिक ज्ञान और प्रयोग करने का मौका बच्चों को विद्यालय में मिले, सवाल पूछने के लिए अवसर, निर्भय एवं स्नेहमय वातावरण मिले, तो विद्यालय का वातावरण भी उन्हें घर जैसा महसूस होगा. आस पास के समाज में क्या घटित हो रहा है, उस ओर देखने की तटस्थ वृत्ति घर और विद्यालय में विकसित हो, यह ध्यान रखा जाना चाहिए. परिस्थितियों तथा मानवीय मूल्यों के आधार पर विचार-विमर्श करके निर्णय लेने का मौका विद्यार्थियों को मिलना चाहिए. छोटे-छोटे प्रयोगों से यह सब सिखाया जा सकता है, ताकि बच्चे शिक्षा का अंग बनें. विद्यालय समाज का छोटा रूप होता है. इसलिए विद्यालय की स्वच्छता, कचरा प्रबंधन, विद्यालय परिसर का सौंदर्यीकरण आदि में बच्चों का सहयोग लिया जा सकता है. एक नागरिक के नाते भी खुद के बारे में, अपने बर्ताव के बारे में तटस्थ होकर देखने की पद्धति प्राथमिक स्तर पर ही शुरू हो जानी चाहिए, बच्चों में स्वानुशासन आये, यह सामूहिक चिंता का विषय होना चाहिए. अपनी कर्मेंद्रियों का कुशलता तथा सृजनशीलता से उपयोग करके कई मामलों में हम स्वावलंबी हो जाते हैं, सवाल हल करने की क्षमता विकसित होती है और अधिक स्वतंत्रता का अनुभव होता है, यह बच्चोंको समझाया जाना चाहिए.
अपने त्योहारों, उत्सवों के बारे में ज्ञान बच्चों को वर्तमान बाजारू एवं पर्यावरण विनाशक परिस्थितियों से बचाता है. व्यावहारिक ज्ञान से समृद्ध तथा सघन समझ विकसित होती है. हस्तकलाओं आदि के जरिये उत्पादक श्रम से जोड़ने वाले अध्ययन प्रकल्प विद्यालयों में शुरू किये जाने चाहिए. बच्चों में सवाल करने की प्रवृत्ति होती है. कोई भी निरोगी बच्चा निठल्ला बैठा नहीं मिलेगा. उसकी जन्मजात संवेदनाओं के लिए जगह बनाकर, जागृति बढ़ाकर अनेक विकल्पों के उपक्रम चलाये जा सकते हैं.
गांधी जी ने देश को नयी तालीम शिक्षा का विचार दिया, जो व्यक्ति के विकास, सामाजिक न्याय, प्रेम भाव और पर्यावरणीय जागरूकता पर आधारित समाज के निर्माण का विचार है. विनोबा इस विचार को अधिक आगे ले आये. उन्होंने विज्ञान, ऐहिक जीवन तथा आध्यात्मिकता का सुंदर जो ड़ बिठाकर दुनिया में व्यक्ति एवं समाज के हित का विचार तथा व्यवहार के मार्गदर्शक सिद्धांत स्पष्ट रूप से हमारे सामने रखे. रवीन्द्र नाथ टैगोर, योगी अरविंद, जे कृष्णमूर्ति जैसे भारतीय शिक्षाविदों ने केवल बौद्धिक दृष्टि से न सोचते हुए, मन के विकास की उतनी ही गहरी सोच रखी है. अमेरिक शिक्षाशास्त्री जॉन ड्युई ने भी समाज की जरूरतों एवं उनका प्रबंधन कौशल विकसित करने वाली शिक्षा का विचार दुनिया के सामने रखा, जिसका नयी तालिम से करीब का संबंध है. मादाम मॉन्टेसरी, गिजु भाई बधेका तथा भगवान दीन ने बच्चों की इच्छा का सम्मान करने वाली बालकेंद्रित शिक्षा पद्धति उपयोग में लाकर शिक्षा क्षेत्र में अनेक प्रयोग किये, जिनसे हम आज भी सीख सकते हैं. जिस देश में श्रम की प्रतिष्ठा नहीं है, ऐसे समाज में श्रम आधारित शिक्षा का विचार मूलभूत परिवर्तन के लिए आश्वस्त करने वाला है. शोषण मुक्त समाज का आदर्श संजोते हुए प्रयोगशीलता पर आधारित यह विचार इस मिट्टी के अनुरूप बना है. देश में कभी बड़े पैमाने पर इसका विस्तार हुआ, किन्तु आजादी के बाद क्षीण होता चला गया. नए सन्दर्भों में जरूरत के अनुसार सिस्टम में बदलाव कर शिक्षा जगत के मूलभूत सवालों के जवाब ढूंढ़ने की असंख्य संभावनाएं इस विचार में है. गत 14 साल से नई तालीम समिति की प्रेरणा से चलने वाले आनंद निकेतन विद्यालय का हमारा प्रयास इसी दिशा में है. नयी तालीम का नाम न लेते हुए भी इसी प्रेरणा से देश में कई अन्य लोग व संस्थाएं भी शिक्षा में परिवर्तन लाने की बढ़िया कोशिश कर रही हैं.
विद्यालयों का डिजिटलाइजेशन करके सरकार शिक्षा में गुणवत्ता लाना चाहती है, पर अगर इसमें मूल्यों के अलावा जीवन दृष्टि भी शामिल हो, तो अधिक प्रत्यक्ष एवं बेहतर परिणाम पाए जा सकते हैं. इसमें अभिभावकों एवं शिक्षकों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी. अभिभावक अपने ज्ञान और अनुभव का योगदान देकर इस प्रक्रिया को अधिक गुणवत्तापूर्ण एवं समृद्ध बनाने में मदद कर सकते हैं. किसी भी बोर्ड के अंतर्गत यह संभव है. जरूरत है इससे संबन्धित सभी को इसका महत्त्व समझने की. 2005 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति इन बातों का महत्त्व अधोरेखित करती है. प्रतिस्पर्धा के जूनून से बचपन को बचाना अभिभावकों, शिक्षकों और शिक्षा संस्थाओं की बड़ी जिम्मेदारी है. कई गरीब देश भी शिक्षा पर भारत से अधिक खर्च करते हैं. स्पष्टता हो तो शिक्षा में भी उपक्रमशीलता लाना मुश्किल नहीं है. कोठारी कमीशन ने भी समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ साथ जन सहभागिता सुनिश्चित कराने वाले पड़ोसी विद्यालय का खाका पहले ही देश के सामने रख दिया है.
शोधवृत्ति, विचारशक्ति, चिंतनशीलता, सृजनात्मकता ये मानव की विशिष्टताएं हैं, इन्हीं से उच्च ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान का विकास अधिकाधिक गतिमान तथा शक्तिशाली हुआ है. अपने अस्तित्व के संघर्ष में मानव ने सामाजिक संबंध के अनेक प्रयोग किये हैं. सृष्टि में संघर्ष तथा सहकार्य दोनों है. हमारा इतिहास जैसे हिंसा का है, वैसे ही सहकार का भी है. विवेकवान जीव होने के नाते मनुष्य अन्य जीवों से अलग है. इसीलिए वैश्विक शांति, मानवाधिकार तथा बालाधिकार तय करने की हद तक हम आये. आज मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए मोबाइल बनाया है तो दूसरी ओर भयंकर विनाशकारी अणुबम भी बनाया है. उपभोक्तावाद ने मानवीय संस्कृति के समक्ष अस्तित्व का गंभीर संकट उपस्थित किया है, जो हम रोजमर्रा के जीवन में भी देख सकते है.
इस पृष्ठभूमि में भविष्य का हमारा शिक्षा प्रबंध कैसा हो, यह निश्चित करने का वक्त सामने है और यह एक बड़ी जिम्मेदारी है. यदि समाज सचेत हो तो गतिमान संवाद से विचार तथा व्यवहार में विधायक क्रांति लायी जा सकती है. वैश्विक स्तर पर जीते हुए भी अपने देश के नागरिकों का हित, जिसमें अन्तिम जन केंद्र में हो, हमें अधिक महत्त्वपूर्ण लगना चाहिए. विश्वगुरू बनने की महत्वाकांक्षा से परे, व्यापक जनहितार्थ काम करें तो राष्ट्र हित और राष्ट्रीय सुरक्षा तो सधेगी ही, शोषण मुक्त विश्व नागरिकत्व कैसा हो, इसका अधिक उन्नत आदर्श हम दुनिया के सामने पेश कर सकेंगे.
(मूल मराठी से हिंदी अनुवाद; डॉ सुगन बरंठ)
-सुषमा शर्मा