वर्तमान केन्द्रीय सरकार जिस दक्षिणपंथी विचारधारा से संचालित है, उसकी आस्था लोकतंत्र में नहीं है। वे महज लोकतंत्र का नारा लगाते हैं और लोकतंत्र के सारे अवसरों का इस्तेमाल लोकतंत्र को खत्म करने में करते हैं। इसलिए आजादी का अमृत महोत्सव उनके लिए महज अमृतपान का एक मौका भर है।
इतिहास भी कुछ अजब-गजब खेल दिखाने का धुनी है। जिन्होंने आजादी के आंदोलन में कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई, बल्कि उलट ब्रिटिश हुकूमत की ताबेदारी में लगे रहे, उनको गुप्त सूचनाएं पहुंचाते रहे, वही आज आजादी के सिरमौर बने हुए हैं और आज़ादी की उपलब्धियों का छककर अमृतपान कर रहे हैं। यह अमृतपान जैसे तैसे नहीं हो रहा है, बल्कि पूरी भव्यता, दिव्यता व पाखंड के रंग में किया जा रहा है और वह भी लोकतंत्र की शोकधुन पर किया जा रहा है।
वैसे तो इंसानियत और देशों के जीवन में यदा-कदा शोकधुनें बजती ही रहती हैं, लेकिन भारत में यह मार्मिक धुन विगत 9 वर्षों से कुछ ज्यादा ही और लगातार बज रही है. इसका बजना अनायास ही नहीं है। इसके पीछे पूरी तैयारी, समग्र योजना और प्रभु वर्ग का सबल व सधन समर्थन है। ‘वाइब्रेंट गुजरात’ में शामिल कॉरपोरेट जगत ने पॉलिसी पैरालिसिस के दौर को खत्म करने के लिए इस धुन की रचना की थी और गायक के रूप में एक दमदार व कर्कश आवाज़ लेकर सामने आये थे। जब यह गायक या नायक भारतीय राजनीति के सुनहरे पर्दे पर छा गया, तो 31 दिसंबर 2014 को इस धुन का डेब्यू हुआ, जब भू-अर्जन कानून-2013 के कुछ प्रावधानों को हल्का करने, उन्हें बेजान बनाने और हटाने के उद्देश्य से केंद्र सरकार एक अध्यादेश ले आयी।
ज्ञात हो कि इससे पहले ब्रिटिश साम्राज्य ने औपनिवेशिक हितों को साधने के लिए 1894 में भू-अर्जन कानून बनाया था, जिसकी कई विसंगतियों के खिलाफ किसान और विस्थापित, देश के विभिन्न इलाकों में संघर्ष कर रहे थे और ऐसे जन विरोधी प्रावधान को बदलने की लगातार मांग कर रहे थे। 2013 का भू-अर्जन कानून इसी संघर्ष का परिणाम था, इस कानून में कई ऐसे जनपक्षधर प्रावधान शामिल किए गए थे, जो कॉरपोरेट की आंखों में खटक रहे थे। वर्तमान प्रधानमंत्री इसी खटके को दूर करने के लिए यह अध्यादेश ले आये थे। 2013 के भू-अर्जन कानून में कृषि भूमि के अधिग्रहण की राह को कठिन बना दिया गया था, मुआवजे की राशि 4 गुना तक बढ़ा दी गई थी और यह प्रावधान भी किया गया था कि अगर अधिग्रहित जमीन का उपयोग 5 वर्ष के अंदर नहीं हुआ, तो रैयत उस जमीन को वापस ले सकती है।
देश भर में विस्थापन विरोधी, किसान और भूमि अधिकार संगठनों ने इस अध्यादेश का पुरजोर विरोध किया। सरकार फिर भी मानने को तैयार नहीं थी। तीन- तीन बार अध्यादेश जारी किए गए, फिर भी इस कानून में संशोधन नहीं हो सका। लेकिन पॉलिसी पैरालिसिस के दौर को खत्म करने के लिए कॉरपोरेट समर्पित ‘क्रोनी कैपटिलिज़्म’ के कदम रुके नहीं।
फिर तो सिलसिला ही चल निकला। काले धन को जप्त करने के नारे पर सवार होकर नोटबंदी आयी। पूरा देश, खासकर गरीब व मध्यमवर्ग बैंकों के सामने कतारबद्ध हो गया। एकबारगी सभी को लगा कि मानो सतयुग ही टपक पड़ने वाला है, अब न तो कोई काला या मटमैला पैसा रहेगा और न जाली नोट और न ही आतंकवाद। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की प्रक्रियाओं का अतिक्रमण करते हुए सबको चकित कर देने की कुंठित आकांक्षा के साथ आनन-फानन में यह कदम उठाया गया। नागरिकों के बीच धार्मिक विभेदीकरण के उद्देश्य से सीएए और एनआरसी प्रकट हुए. नागरिकों ने, विशेषकर मुस्लिम महिलाओं ने इसके खिलाफ मोर्चा संभाला। दिल्ली के शाहीनबाग में शुरुआत हुई, तो देश भर में सैकड़ों शाहीनबाग बन गए। सीएए, एनआरसी के खिलाफ चलने वाले आंदोलनों को कुचलने की भरसक कोशिशें हुईं. ये कोशिशें आज भी जारी हैं। कई लोग आज भी जेलों में बंद हैं।
लोकतंत्र में शोकधुन का शोर बढ़ता ही जा रहा है। आजादख्याली और खुलेपन के हर ठिकाने को अंधविश्वास और आस्था की मिसाइल से तबाह किया जा रहा है। जेएनयू और जामिया मिलिया को नष्ट करना मानो इनका परम कर्तव्य है। भारत की संघीय संरचना को ध्वस्त करना एकतंत्रात्मक व्यवस्था के लिए जरूरी है। याद रखें कि वन नेशन, वन लैंग्वेज, वन टैक्सेशन आदि से शुरू होने वाला सफर अंततः वन पार्टी और वन लीडर तक जाता है।
किसानों को रोकने के लिए राजमार्गों पर दीवारें खड़ी की गयीं, कंटीले बाड़ लगाए गए और कीलें गाड़ी गयीं। ये कीलें सड़कों पर नहीं, लोकतंत्र के सीने पर गाड़ी गयी थीं। वर्तमान केन्द्रीय सरकार जिस दक्षिणपंथी विचारधारा से संचालित है, उसकी आस्था लोकतंत्र में नहीं है। वे महज लोकतंत्र का नारा लगाते हैं और लोकतंत्र के सारे अवसरों का इस्तेमाल लोकतंत्र को खत्म करने में करते हैं। इसलिए आजादी का अमृत महोत्सव उनके लिए महज अमृतपान का एक मौका भर है।
-अरविंद अंजुम