कुल 13 साल की उम्र में ‘अंग्रेजों, भारत छोड़ो आन्दोलन में कूद पड़ने वाले सुब्बाराव, जिन्हें हम सब प्यार और अपनेपन से भाई जी कहके बुलाते थे, जब पिछले हफ्ते अस्वस्थ होकर अस्पताल दाखिल हुए तो हममे से किसी को यह गुमान तक नहीं था कि भाई जी की विदा का समय आ पहुंचा है. लेकिन आज सुबह होते ही जब यह खबर समाचार माध्यमों के जरिये फ्लैश हुई कि भाई जी ने जयपुर के एक अस्पताल में आज 27 अक्टूबर की सुबह लगभग 6 बजे आखिरी सांस ली, तो हम सब सन्न रह गये.
अबाल वृद्ध, खासकर युवाओं के बीच समान रूप से लोकप्रिय रहे भाई जी ने 92 वर्ष की उम्र में देह छोड़ी. उनका जन्म 1929 में बंगलोर में हुआ था. गांधी और गांधी विचार के सम्पर्क में आने के बाद भाई जी गांधी के ही होकर रह गये. इस मौके पर गांधी जी का वह कथन याद आता है, जब उन्होंने कहा था कि मरने के बाद भी मैं अपनी कब्र से बोलूँगा. गांधी के बाद गांधी की कब्र से उठने वाली गांधी की आवाजों में एक सुर भाई जी का भी था. उनका कुछ भी निजी नहीं था, वे समाज के थे और समाज उनका था. उनके योगदानों की चर्चा करने बैठेंगे तो जगह कम पड़ेगी. उन्होंने अपने व्यक्तित्व को इतना आभावान बनाया कि उस रौशनी पर भरोसे की अनगिन गाथाएं लिखी गयीं. चम्बल के बागियों का समर्पण ऐसी ही एक गाथा है. युवाओं के प्रशिक्षण के लिए उन्होंने देश विदेश के कोने कोने में शिविर किये और एक, दो नहीं, कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित किया.
वे युवा हृदय सम्राट थे. वे अपनेआप में एक उमंग थे, ख़ुशी थे, ऊर्जा के साक्षात् पॉवर हाउस थे. वे रचनाशीलता के शिक्षक थे. वे जहाँ खड़े हो जाते, वहीं महोत्सव मनने लगता था. उन्होंने देश में ही नहीं, दुनिया भर में गांधी विचार की रौशनी फैलाई. आज वे हमारे बीच नहीं हैं. हम सबकी आँखें नम हैं.भरे हुए हृदय और रुंधे हुए कंठ से हम उन्हें अपनी श्रद्धांजली अर्पित करते हैं.
-प्रेम प्रकाश