देश के मध्यवर्ग, कर्मचारी वर्ग और अन्य उच्च मध्यवर्ग या संपन्न लोगों के खातों में जमा राशि का आंकड़ा निकाला जाये तो एक अनुमान के मुताबिक वह लगभग 4-5 लाख करोड़ रुपये के आसपास होगा। यानी देश के गरीब और मध्यवर्ग की बैंकों में जमा पूंजी प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी से 4-5 गुना ज्यादा होगी। इस हिसाब में उद्योगपतियों या कारपोरेट घरानों के जमा धन की गणना नहीं की गयी है।
वर्ष 1995 में हुए विश्व व्यापार संगठन के समझौते के बाद देश में एफडीआई (फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्मेंट) की चर्चा बहुत जोरों से है. वैश्वीकरण के समर्थकों ने तो एफडीआई को ही विकास का मुख्य आधार व एकमात्र मुक्ति-मार्ग मान लिया है तथा ऐसा प्रचार किया है कि अगर एफडीआई नहीं आयेगी तो देश पीछे चला जायेगा। देश में औद्योगीकरण व विकास के लिए पूंजी नहीं मिलेगी। एकमात्र एफडीआई ही वह वैतरणी है, जो देश को स्वर्ग की ओर ले जा सकती है।
1995 के पूर्व भी देश में विभिन्न क्षेत्रों व उद्योगों में विदेशी पूंजी लगती रही है। भिलाई स्टील प्लांट में उसकी स्थापना के समय रूस की पूंजी लगी थी. देश के स्टील उत्पादन में सार्वजनिक क्षेत्र के भिलाई स्टील प्लांट ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। विश्व बैंक के माध्यम से देश की बहुतेरी सिंचाई परियोजनाओं के लिए पैसा आया। यह भी अप्रत्यक्ष विदेशी पूंजी जैसा ही है, क्योंकि विश्व बैंक व आईएमएफ के पीछे भी वैश्विक आर्थिक शक्तियों की ही पूंजी रहती है। विश्व बैंक में विभिन्न देशों की हिस्सेदारी होती है और अपने-अपने अंशों के अनुपात में उन्हें संचालन में सहभागिता या हिस्सेदारी मिलती है। चूंकि ज्यादा पैसा संपन्न व विकसित देशों का है, अतः स्वाभाविक है कि उनका प्रभाव ज्यादा होगा। कहने को भले ही विश्व बैंक संयुक्त राष्ट्र संघ का अंग माना जाता हो, पर सारा नीति नियंत्रण और कर्ज देने की नीतियां तो आर्थिक शक्तियां ही तय करती हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तो दुनिया के पूंजीपतियों का ही संगठन है, जो किसी योजना के लिए कर्ज नहीं देता, बल्कि जब कोई देश इतना अधिक कर्ज ले लेता है कि उसे चुका नहीं पाता और दिवालिया हो जाता है, तब अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष उसे बचाने आता है तथा उसके कर्ज को चुकाने के लिए फिर से कर्ज देता है। विश्व बैंक के कर्ज में वैश्विक आर्थिक शक्तियों के निहित उद्देश्य और स्वार्थ तो होते हैं, पर खुली शर्तें नहीं होतीं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की कर्जदाता नीतियों में सीधे-सीधे शर्तें होती हैं कि दिवालिया देश को अपनी आर्थिक नीतियां कैसी बनानी होंगी, उनमें क्या बदलाव करना होंगे आदि।
यह जो एफडीआई है, यह संपन्न देशों द्वारा दुनिया के गरीब देशों को कर्ज के जाल में फंसाने तथा उनकी नीति-निर्माण व्यवस्था को अपने हाथ में ले लेने वाला साम्राज्यवाद का अप्रत्यक्ष जाल है। जिस प्रकार मछली को फंसाने के लिए आटा या गारा कांटे में लगाया जाता है, उसी प्रकार एफडीआई भी गरीब देशों को वैश्विक कर्ज के जाल में फंसाने वाला आटा है।
जो लोग एफडीआई को मुक्ति मंत्र मानते हैं, वे शायद नहीं जानते या फिर जानकर भी कहने की स्थिति में नहीं होते कि एफडीआई की शर्तें क्या व कितनी अमानवीय होती हैं। इसकी पहली शर्त तो यही है कि इस पूंजी का उपयोग देशी उद्योगपति अपनी मर्जी से नहीं कर सकता। इसे कहाँ लगाया जाना है, यह निर्णय लगाने वाला नहीं करेगा। उद्योग लगाने के लिए अगर कोई देशी बैंकों से कर्ज लेता है, तो कर्ज का उपयोग किन उद्योग धंधों में करना है, यह निर्णय कर्जदार का अपना होता है। वह केवल बैंक को संतुष्टिजनक गारंटी देता है कि वह कर्ज की राशि अदा कर देगा, परंतु विदेशी पूंजी अपना क्षेत्र स्वतः निर्धारित करती है। फिर विदेशी पूंजी के मालिक कर्जदार देश को सिखाते व बताते हैं कि तुम कर्जदार हो, क्योंकि तुम मूर्ख हो, इसलिए जैसा हम बतायें, वैसा करना होगा। वे कर्जदार देश के उत्पादन की लागत बढ़ाने के लिए सरकारी सहायता का अनुदान समाप्त करने की सलाह देते हैं। इतना ही नहीं, कर्जदार देश के बजट निर्माण, टैक्स नीति आदि भी वही तय करते हैं तथा साहूकार देश या संस्थाएं अपनी पूंजी के लिए विभिन्न प्रकार की टैक्स सहूलियतें हथिया लेते हैं।
इस विदेशी पूंजी के बदले उन्हें भारत या अन्य कर्जदार देश की भूमि निःशुल्क या सस्ती दर पर मिल जाती है, जिसे सरकार अधिग्रहीत करके उपलब्ध कराती है। उनके कारखाने श्रम कानूनों से मुक्त हो जाते हैं तथा उनके उद्योग एक प्रकार से देशी भूमि पर विदेशी टापू जैसे बन जाते हैं। वे कर्जदार देश के सभी नियमों से लगभग मुक्त होते हैं। कुछेक मामलों में तो साहूकार देश यह भी तय करा लेते हैं कि उन पर या उनके मालिकों पर कोई भी आपराधिक या दीवानी मुकदमा केवल उनके अपने देश में ही चलेगा। अंग्रेजी राज स्थापित होने से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ब्रिटिश दासता का माध्यम बनी थी। अब तो कितनी ही ईस्ट इंडिया कंपनियां इस देश में घुसपैठ कर चुकी हैं। अब इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करना होगा कि क्या देश के विकास के लिए इस विदेशी पूंजी का कोई विकल्प है?
कोरोना काल के पहले वर्ष (2020-21) में अधिकतम 24.04 मिलियन डॉलर यानी एक लाख अड़सठ हज़ार करोड़ रूपये एफडीआई के रूप में देश में आये थे। हालांकि 2021-22 में यह राशि घटकर मात्र 9.5 मिलियन डॉलर यानी मुश्किल से 60 हज़ार करोड़ रूपये के बराबर हो गई। वहीं दूसरी तरफ, भारत सरकार के आह्वान पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में जनधन के लगभग 44 करोड़ खाते खोले गये। इन खातों में पहले ही वर्ष में 1 लाख 90 हज़ार करोड़ रुपये की राशि जमा हुई. इसका मतलब हुआ कि देश का गरीब आदमी, जिसके नाम पर जनधन के ये खाते हैं, वह विदेशी पूंजी निवेश के बराबर पूंजी भारतीय बैंकों में जमा कर रहा है। यह तो हुआ केवल जनधन खातों का हिसाब। अब अगर देश के मध्यवर्ग, कर्मचारी वर्ग और अन्य उच्च मध्यवर्ग या संपन्न लोगों के खातों में जमा राशि का आंकड़ा निकाला जाये तो एक अनुमान के मुताबिक वह लगभग 4-5 लाख करोड़ रुपये के आसपास होगा। यानी देश के गरीब और मध्यवर्ग की बैंकों में जमा पूंजी प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी से 4-5 गुना ज्यादा होगी। इस हिसाब में उद्योगपतियों या कारपोरेट घरानों के जमा धन की गणना नहीं की गयी है, यह मानकर कि वे अपनी पूंजी का इस्तेमाल कहीं अन्यंत्र कर ही रहे होंगे।
अब ध्यान देने की बात यह है कि भारत सरकार देशी जमा पूंजी को रियायत देकर प्रोत्साहित करने के बजाय निरुत्साहित करती है। आज से लगभग तीन दशक पूर्व बैंकों में फिक्स डिपोजिट पर 12 से 15 परसेंट तक ब्याज मिलता था, इसी प्रकार पोस्ट ऑफिस तथा अन्य बचत योजनाओं पर अच्छा ब्याज मिलता था, जिससे वृद्ध, विकलांग और अन्य मध्यवर्गीय जरूरतमंद अपने जीवन को भी चलाते थे और पूंजी भी जमा करते थे। किन्तु विदेशी पूंजी के मालिकों और वैश्विक आर्थिक शक्तियों के दबाव में ब्याज की दरों को घटाकर 4 से 5 प्रतिशत कर दिया गया, यानी एक लाख जमा पूंजी पर 8 से 10 हज़ार रूपये की कमी हुई. यह कितना विचित्र है कि सरकार विदेशी साहूकारों से जो कर्ज लेती है, उस पर निर्धारित अवधि के बाद 20-20 प्रतिशत तक ब्याज चुकाती है, उनकी शर्तें अलग से मानती है। दूसरी तरफ अपनी देशी पूंजी, जो स्वैच्छिक होती है, गरीब और मध्यमवर्ग की रोटी की सहायक होती है, पर पहले से चला आ रहा 10-12 प्रतिशत ब्याज भी नहीं देती है।
देश में विदेशी व्यापार और निर्यात को लेकर एक और भ्रम है। कुछ दिनों पूर्व देश के प्रधानमंत्री ने अपनी पीठ ठोंकते हुए कहा था कि हमारा निर्यात बढ़कर तीन लाख करोड़ रुपये का हो गया है, सुनकर अच्छा लगा था। किन्तु उन्होंने यह नहीं बताया कि हमारा आयात कितना बढ़ा है। अभी भी अकेले चीन से भारत 6 लाख करोड़ रूपये से अधिक का प्रतिवर्ष आयात करता है, बाकी दुनिया के अन्य देशों की बात तो छोड़ दें। विदेशी व्यापार घाटा यानी आयात-निर्यात का अंतर निरंतर बढ़ता जा रहा है। नवम्बर 2019 से 2021 तक भारत का व्यापार घाटा 15.7 बिलियन डॉलर था, जो वर्ष 2022 में बढ़कर 21.7 बिलियन डॉलर हो गया है। हमारा आयात जहाँ 59.5 बिलियन डॉलर हो गया है, वहीं निर्यात मात्र 42.9 बिलियन डॉलर है। यह जो 17.4 लाख बिलियन डॉलर का अंतर है, उसकी अगर रुपयों में गणना करें तो लगभग 2 लाख रुपये का आयात एक वर्ष में बढ़ा है। फिर इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि हम निर्यात क्या करते हैं और किन देशों को निर्यात करते हैं। हमारा अधिकतर निर्यात दुनिया के गरीब देशों को ही होता है। चीन, अमेरिका जैसे संपन्न देशों को तो हम केवल खनिज आदि स्थायी सम्पत्तियों का ही निर्यात करते हैं।
एफडीआई का विकल्प है एनडीआई यानी प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के बजाय प्रत्यक्ष देशी पूंजी निवेश। यदि भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारना है तथा विदेशी दबाव से बचना है, तो साफ-साफ कहना होगा कि हमें एफडीआई नहीं, एनडीआई चाहिए.
-रघु ठाकुर