पर्यावरण और चुनौतियां
नासा की एक खोज के अनुसार अंटार्कटिका में औसतन 150 बिलियन टन और ग्रीनलैंड आइस कैप में 270 बिलियन टन बर्फ प्रति वर्ष पिघल रही है। आगे आने वाले समय में सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र आदि नदियां सिकुड़ जाएंगी और बढ़ता हुआ समुद्री जल स्तर खारे पानी की वजह से डेल्टा क्षेत्र को मनुष्य के रहने लायक नहीं छोड़ेगा।
वैश्विक स्तर पर पर्यावरण के दोहन से पृथ्वी पर जीव जंतुओं, वनस्पतियों; यहां तक कि मनुष्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग गया है। जीवन जल, वायु, अग्नि, मिट्टी और आकाश इन पांच तत्वों से मिलकर बना है। केवल अग्नि को छोड़कर शेष चारों तत्व आज सीधे तौर पर मनुष्य द्वारा इतने प्रदूषित कर दिए गए हैं कि मनुष्य स्वयं अपना जीवन लील रहा है, आगे आने वाली पीढ़ियों पर अस्तित्व का भयंकर संकट मंड़रा रहा है। इन चार तत्वों के प्रदूषित होने के कारण पाचवां तत्व भी मनुष्य और पर्यावरण के प्रतिकूल होता जा रहा है। दुनिया के अनेक जंगलों में लगने वाली आग, इमारतों में शॉर्ट सर्कट से लगने वाली आग आज मनुष्य और पर्यावरण को कितना नुकसान पहुचा रहे हैं, सभी जानते हैं। इस विषम परिस्थिति में विभिन्न देशों, संस्थानों एवं लोगों का ध्यान सामूहिक एवं व्यक्तिगत स्तर पर इस ओर गया है और विश्व भर में पर्यावरण को बचाने के प्रयास चल रहे हैं।
भूजल स्तर में गिरावट और उसका प्रदूषित होना खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। जलस्तर में गिरावट की रोकथाम के लिए कई प्रयास चल रहे हैं। भारत सरकार देश के 33 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले भूगर्भीय जल का अध्ययन कर रही है। सरकार ने 13 फरवरी 2023 को राज्यसभा में जानकारी दी कि 30 दिसंबर 2022 तक 24.5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का भूजल मापन पूरा कर लिया गया है, शेष मार्च 2023 तक पूरा कर लिया जाएगा। इसका उद्देश्य भूगर्भीय जल स्त्रोत की विशेषता की पहचान करके स्थानीय समूहों के साथ मिलकर जल प्रबंधन का कार्यक्रम संचालित करना है। यह जानकारी राज्य सरकारों के साथ साझा की जाएगी, ताकि वे इसका उचित प्रबंधन और उपयोग कर सकें।
पृथ्वी और पर्यावरण को जीवन के अनुकूल बनाये रखना होगा
भारत विश्व में भूजल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, यहाँ 253 बिलियन क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष की दर से भूजल का दोहन किया जा रहा है। यह वैश्विक भूजल निष्कर्षण का लगभग 25% है। भारत में लगभग 1123 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) जल संसाधन उपलब्ध है, जिसमें से 690 बीसीएम सतही जल और शेष 433 बीसीएम भूजल है। भूजल का 90% सिंचाई के लिए और शेष 10% घरेलू और औद्योगिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उपयोग किया जाता है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट ‘समग्र जल प्रबंधन सूचकांक’ [Composite Water Management Index (CWMI)] के अनुसार वर्ष 2030 तक देश में जल की मांग दोगुनी होने की संभावना है। इससे देश में लाखों लोगों के लिए गंभीर जलाभाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है और देश के सकल घरेलू उत्पाद में 6% की हानि हो सकती है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान के साथ-साथ गुजरात, पंजाब, हरियाणा के कुछ हिस्सों में जल की अभूतपूर्व कमी है। हालांकि जल राज्य सूची का विषय है और जल प्रबंधन, संरक्षण, पुनर्भरण उसका काम है, फिर भी भारत सरकार का जल शक्ति मंत्रालय, केंद्रीय भूजल बोर्ड के माध्यम से ‘राष्ट्रीय जलभृत प्रबंधन योजना’ [National Aquifer Mapping and Management Programme (NAQUIM)] के तहत देश के संपूर्ण भूजल स्तर का मापन, मानचित्रण और प्रबंधन कर रहा है।
पृथ्वी को बचाने के लिए हाल के वर्षों में जागरूकता बढ़ी है। सरकारें, सामाजिक संगठन, विद्यार्थी सभी इस विषय में चिंतन कर रहे हैं और अपने-अपने स्तर पर जागरूकता बढ़ाने के अलावा नीतियां एवं सिद्धांत भी प्रतिपादित कर रहे हैं। यहां दो घटनाओं का जिक्र आवश्यक है, ताकि यह लोगों को पर्यावरण की सुरक्षा और जागरूकता के बारे में प्रोत्साहित कर सके।
अमरीका में भारतीय मूल के मैट्रिक छात्र आकाश सेंदुरी, जो सीएटल में पढ़ते हैं, ने विश्व के 150 अमीर लोगों के बारे में एक अध्ययन किया है, जो यथार्थ के साथ-साथ रोचक भी है। अपने प्राइवेट हवाई जहाजों के माध्यम से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने वाले अमीरों की इस सूची में सबसे ऊपर अमरीकन अरबपति थॉमस सिबल का नाम है, जो 4649 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड आकाश में छोड़ते हैं। यह कितना हास्यास्पद है कि वे जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित विषयों पर खुलकर बोलते भी हैं और वैकल्पिक ऊर्जा के प्रयोगों के लिए खुलकर दान भी देते हैं। इस सूची में मीडिया मैग्नेट रूपर्ट मर्डोक और माइक ब्लूमबर्ग भी शामिल हैं, जो क्रमशः 4357 मीट्रिक टन और 3196 मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करके पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं। अन्य प्रमुख हस्तियों के नाम सुनकर आप चौक जायेंगे। इसमें बिल गेट्स, मार्क जुकरबर्ग, जैरी सीनफेल्ड, जे जेड जैसे अमीरों के नाम शामिल हैं, जो 2000 मीट्रिक टन से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करते हैं। यह भी जान लीजिये कि अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 15.52 मीट्रिक टन है, जबकि भारत में यह केवल 1.77 मीट्रिक टन है। गणित और फिजिक्स के विद्यार्थी आकाश ने सार्वजनिक रूप से उपलब्ध और सरकारी डाटा के अनुसार एक वेबसाइट climatejets. com बनाई है, जिसके माध्यम से यह सब तैयार किया। इससे जाहिर होता है कि दुनिया के अमीर पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं।
स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में काम करने वाले उद्यमी पिता और डॉक्टर मां की संतान आकाश के घर में अक्सर डिनर पर इस विषय पर चर्चा होती रहती है। उसका कहना है कि हमारी उम्र के विद्यार्थी केवल बिजली बचाकर इसमें सहयोग कर सकते हैं, बेशक यह प्राइवेट जेट द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण से बहुत कम होगा।
पर्यावरण से सम्बंधित दूसरा विषय मेडिकल कॉलेज में जलवायु परिवर्तन की पढ़ाई को लेकर है। इसे सिलेबस में शामिल करने की योजना बनाई जा रही है, जो पिछले लगभग 10 वर्षों से लंबित है। इसमें विद्यार्थियों को प्रदूषित वातावरण के मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में पढ़ाया जाएगा। नेशनल काउंसिल फॉर डिजीज कंट्रोल (NCDC), देश की विभिन्न राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान परिषदों, डेंटल काउंसिलों, आयुष, नर्सिंग काउंसिलों, फार्मेसी काउंसिलों आदि से इस विषय पर बातचीत कर रहा है। फरवरी 2023 में इस विषय पर मुंबई आईआईटी में दो दिवसीय गोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसमें अहमदाबाद मॉडल का जिक्र हुआ। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ, गांधीग्राम के प्रोफेसर महावीर गोलेछा ने कहा कि गर्मी के मौसम में मृत्यु दर अधिक होती है, जिसका अस्पताल के ओपीडी, आईपीडी में कोई डाटा नहीं रखा जाता, जिस कारण इससे बचाव के लिए हम कोई कदम नहीं उठा पाते। विशेषज्ञों का कहना था कि जलवायु परिवर्तन की वजह से लू बढ़ेगी, इसलिए हमें सुरक्षा के उपाय अपनाने चाहिए। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन आवश्यक है।
जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्री जल स्तर में वृद्धि होगी, जिसका प्रभाव भारत, चीन, बांग्लादेश और नीदरलैंड पर पड़ेगा। वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन (WMO) ने कहा कि वर्ष 2012-22 तक समुद्र का जलस्तर 4.5 मिलीमीटर बढ़ा है। 21वीं शताब्दी में 0.6 मीटर जल स्तर बढ़ेगा, जिसकी वजह से न केवल टापू वाले तटीय देश, बल्कि कई बड़े-बड़े शहर शंघाई, ढाका, बैंकॉक, जकार्ता, मुंबई, लागोस, कैरो, लंदन, कोपनहेगन, न्यूयॉर्क, लास एंजिल्स, ब्यूनस आयर्स, सानटियागो आदि प्रभावित होंगे। यह एक बड़ी आर्थिक, सामाजिक और मानवीय चुनौती है। पिछले 3000 वर्षों में औसत समुद्री जलस्तर किसी भी शताब्दी के मुकाबले19 वीं शताब्दी में सर्वाधिक तेजी से बढ़ा है। 1900 से 1971 तक जल स्तर 1.3 एमएम प्रतिवर्ष की दर से बढ़ा है। WMO का कहना है कि यह सब बढ़ते तापमान की वजह से ध्रुवीय बर्फ, ग्लेशियर आदि के पिघलने से हो रहा है। इस शताब्दी के अंत तक 90 करोड़ लोगों और 14.2 ट्रिलियन संपत्ति पर इसका प्रभाव पड़ेगा। वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ओर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट पर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने भी चिंता प्रकट की है। गुटेरेस ने कहा कि नासा की एक खोज के अनुसार अंटार्कटिका में औसतन 150 बिलियन टन और ग्रीनलैंड आइस कैप में 270 बिलियन टन बर्फ प्रति वर्ष पिघल रही है। आगे आने वाले समय में सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र आदि नदियां सिकुड़ जाएंगी और बढ़ता हुआ समुद्री जल स्तर खारे पानी की वजह से डेल्टा क्षेत्र को मनुष्य के रहने लायक नहीं छोड़ेगा।
भूगर्भीय जल स्तर को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि इसका पुनर्भरण होता रहे, जो अधिकतम बरसात के पानी और नदियों, नहरों से होता है। भारत की राजधानी दिल्ली की बात करें जहां केंद्र और राज्य सरकार दोनों इस शहर की देखभाल करती हैं, वहां भी भूगर्भीय जल का अधिक दोहन होता है। केंद्रीय भूगर्भीय जल बोर्ड के अनुसार पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष दिल्ली के कुल 34 ब्लॉक में से 17 ब्लॉक में अत्यधिक दोहन किया गया, बाकी 14 ब्लॉक गंभीर और केवल 3 ब्लॉक सुरक्षित स्थिति में हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार जनवरी 2012 से जनवरी 2021 के दशक के औसत भूगर्भीय जल की तुलना यदि जनवरी 2022 से करें तो यह स्तर 70% बढ़ा है। भूगर्भीय जलस्तर कम ज्यादा होता रहता है, इसलिए इसे वर्ष में चार बार जनवरी, मई, अगस्त और नवंबर में मापा जाता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार कृत्रिम रिचार्ज के लिए दिल्ली में 12 चैक डैम, 22706 रिचार्ज शाफ्ट और 304500 छतों की जरूरत वर्षा जल संचयन के लिए होगी।
भूगर्भीय जल के प्रदूषित होने का एक बड़ा कारण उसमें भारी धातु का अधिक मात्रा में होना है। एक लीटर पानी में यूरेनियम की प्रतिबंधित सीमा 30 माइक्रोग्राम है, परंतु दिल्ली के कई स्थानों पर यह 4% से अधिक पाया गया है। इसी प्रकार कई स्थानों पर प्रतिबंधित सीमा से अधिक मैंगनीज, आयरन, नाइट्रेट और फ्लोराइड पाया गया है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। विशेषज्ञों की राय के अनुसार पानी में भारी धातु की मात्रा त्रुटिपूर्ण पुनर्भरण और अनुपचारित सीवेज की वजह से बढ़ती है। शहरों में अनुपचारित अपशिष्ट जल की वजह से भूजल प्रदूषण होता है। यह समस्या केवल दिल्ली की नहीं है, बल्कि पूरे भारतवर्ष के शहर इस समस्या से जूझ रहे हैं।
स्वच्छ पर्यावरण के लिए डीजल का उपयोग एक बड़ी समस्या है। सार्वजनिक और निजी परिवहन के लिए कई शहरों में डीजल के स्थान पर सीएनजी का उपयोग किया जा रहा है, जिससे कार्बन उत्सर्जन को कम किया जा सके। परंतु विश्व भर में अभी भी रेलवे काफी मात्रा में डीजल इंजन का प्रयोग कर रहा है। भारत में अभी भी 37% लोकोमोटिव डीजल का प्रयोग किया जा रहा है। कुछ स्थान तो ऐसे हैं, जहां बिजली इंजन का प्रयोग संभव ही नहीं है; जैसे कालका, शिमला और दार्जिलिंग। ऐसे स्थानों पर बिजली के तार लगाना बहुत खर्चीला और शायद असंभव काम है, इसलिए रेल मंत्रालय ग्रीन हाइड्रोजन सेल का उपयोग करके रेल चलाने की योजना बना रहा है, जिससे कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन नहीं के बराबर होगा। अभी ग्रीन हाइड्रोजन महंगा है। एक किलो हाइड्रोजन की कीमत 4.5 लीटर डीजल की कीमत के बराबर है, परंतु भविष्य में इसकी कीमत में काफी कमी आएगी। आइसलैंड में अप्रैल 2003 से अगस्त 2005 तक एक पायलट प्रोजेक्ट चलाया गया था। इसमें 3 बसें हाइड्रोजन फ्यूल सेल द्वारा चलाई गई थीं। ये बसें 89000 किलोमीटर चलीं, जिसमें 17300 किलोग्राम हाइड्रोजन का प्रयोग हुआ और 58000 लीटर डीजल की बचत की गई। यूरोपीय देशों ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी ने वर्ष 2030-40 तक अपनी सभी ट्रेनें ग्रीन हाइड्रोजन से चलाने का निर्णय किया है, ताकि कार्बन के उत्सर्जन को रोका जा सके।
नीली अर्थव्यवस्था जो भारत में अपने शैशवकाल में है, जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल असर उस पर भी पड़ रहा है। पृथ्वी, वनस्पति, वन, पर्वतीय क्षेत्र, भूजल, वायुमंडल और जीव-जंतु तो इससे प्रभावित हो ही रहे हैं, परंतु महासागर भी इससे अछूते नहीं है, जो हमारी पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा घेरते हैं। महासागरों का प्रदूषण प्लास्टिक आधारित है, यदि इसे कम नहीं किया गया तो इसका प्रतिकूल असर समुद्री खाद्यों पर भी पड़ेगा, जिससे समस्त समुद्री जीव-विविधता को नुकसान होगा। जहाज से होने वाले तेल रिसाव भी महासागरीय जैव विविधता को प्रभावित कर रहे हैं।
महंगा पड़ेगा पर्वतीय असंतुलन
फरवरी 2023 में संसद में पेश किए गए बजट में ब्लू इकोनामी अर्थात नीली अर्थव्यवस्था को भी स्थान दिया गया है, जो वैश्विक जीडीपी में 5% हिस्सा रखता है और 35 करोड़ लोगों को रोजगार देता है। भारत की तटीय लंबाई नौ राज्यों और चार केंद्र शासित राज्यों में 8000 किलोमीटर है, यहाँ 15 लाख लोग सीधे तौर पर रोजगार से जुड़े हैं, जिसमें मछली उत्पादन का 6 प्रतिशत योगदान है। समुद्री जीवों के लिए एक निश्चित तापमान की आवश्यकता होती है। तापमान बढ़ने से इनके समक्ष भी संकट उत्पन्न हुआ है। इसका सीधा असर समुद्री खाद्यों पर पड़ेगा, जो लोगों के भोजन और पोषण को तो प्रभावित करेगा ही, देश को काफी आर्थिक हानि भी होगी।
भारत को 2030 तक कार्बन उत्सर्जन की तीव्रता को 35 प्रतिशत तक कम करना है, जिसमें ज्वारीय, थर्मल और अपतटीय पवन ऊर्जा का उत्पादन सहयोगी हो सकता है, इसे विकसित करने की आवश्यकता है। अंतराष्ट्रीय तटीय सफ़ाई दिवस पर भारत सरकार द्वारा स्वच्छ सागर, सुरक्षित सागर को लेकर कार्यक्रम आयोजित किये गए हैं, जो तटीय जिलों के साथ साथ 75 समुद्री तटों के लिए 75 दिन का अभियान है। इसके साथ ही स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों में पृथ्वी दिवस और सागर दिवस पर जागरूकता अभियान, प्रतियोगिताओं, कार्यशालाओं आदि का आयोजन किया जायेगा।
इसी प्रकार पर्वतीय क्षेत्रों का विकास के नाम पर जिस प्रकार दोहन हो रहा है, वह अत्यंत चिंताजनक है। उतराखंड में जोशीमठ इसका ताजा उदहारण है, जहां मकानों में दरार आने लगीं और लोगों को अन्यत्र सुरक्षित स्थानों पर बसाने का प्रयास चल रहा है। जोशी मठ के बाद टिहरी गढ़वाल को भी भूस्खलन का सामना करना पड़ रहा है। आल वेदर प्रोजेक्ट के अंतर्गत चंबा में 440 मीटर लम्बी सुरंग का निर्माण किया गया। स्थानीय निवासियों का कहना है कि सुरंग बनाने के बाद बाजार में दरारें दिखाई देने लगीं। कई विशेषज्ञों का कहना है कि NTPC के तपोवन-विष्णुगढ़ प्रोजेक्ट के कारण जोशीमठ गुफा पर खड़ा है, परन्तु NTPC के अधिकारी इससे इंकार करते है। उनका कहना है कि 12.5 किलोमीटर सुरंग ड्रिलिंग और बाकि ब्लास्ट से बनायी जा रही है। कारण कुछ भी हो, पर जोशीमठ धंस रहा है। अत्यधिक विनिर्माण के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन भी पर्वतीय संतुलन को बिगाड़ रहा है। उत्तराखंड में वर्ष 2021 व 2022 में अत्यधिक बारिश से हुए जानमाल का नुकसान हमें आगाह कर रहा है कि अभी चेत जायें, अन्यथा भविष्य में कोई भयानक दुर्घटना घटित हो सकती है। सम्पूर्ण हिमालय क्षेत्र के साथ-साथ अरावली, विन्ध्य, सतपुड़ा, पश्चिमी घाट (सह्याद्रि) और पूर्वीघाट पर्वत श्रृंखला के लिए एक नीति निर्धारण की आवश्यकता है, जिसका सख्ती से पालन हो, अन्यथा इसके दूरगामी प्रतिकूल परिणाम देश के लिए अत्यंत घातक होने वाले हैं।
-अशोक शरण