ताजमहल का विवाद, इतिहास और असलियत

काल के गाल पर ढुलके हुए आंसू का एक कतरा है ताज-गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर

जयपुर राजघराने की राजकुमारी दीया जब यह दावा करती हैं कि यह जमीन उनके पुरखों की है, तो वे यह बताना भूल जाती हैं कि इसके बदले में राजा जयसिंह को शाहजहां ने चार हवेलियां दी थीं। शाहजहां ने जिस जगह को ताजमहल के निर्माण के लिए चुना था, बिल्कुल वह राजा मानसिंह की थी। इसकी पुष्टि 16 दिसंबर,1633(हिजरी 1049 के माह जुमादा 11 की 26/28 तारीख) को जारी फरमान से होती है। शाहजहां द्वारा यह फरमान राजा जयसिंह को हवेली देने के लिए जारी किया गया था। फरमान में जिक्र है कि शाहजहां ने मुमताज को दफन करने के लिए राजा मानसिंह की हवेली मांगी थी। इसके बदले में राजा जयसिंह को चार हवेलियां दी गई थीं। यह फरमान आर्काइव्स में सुरक्षित है।

 

ताजमहल पर दायर पीआईएल इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने खारिज कर दी। कानून के जानकार, इस अजीबोगरीब जनहित याचिका का परिणाम जानते थे। अदालत ने याचिकाकर्ता को इतिहास का अध्ययन करनेऔरअकादमिक शोध के लिए निर्धारित शैक्षणिक प्रक्रिया, जो विश्वविद्यालयों में उच्चतर अध्ययन के लिए स्वीकृत है, अपनाने की सलाह भी दी है।

ताजमहल की यह याचिका या ताज पर अचानक उठा यह विवाद न तो कोई अकादमिक विवाद है और न ही कोई जिज्ञासु जनहित का प्रश्न। यह एक प्रकार से राजनीतिक उद्देश्यों से लिपटा हुआ विवाद है, जिसमें जानबूझकर जयपुर राजघराने की राजकुमारी और भाजपा सांसद दीया कुमारी को आगे किया गया। मेरी निजी राय यह है कि ताज़महल विवाद में जयपुर राजघराने को नहीं पड़ना चाहिए। जयपुर राजघराना मुगलों का सबसे वफादार राजघराना रहा है और उसने कभी भी मुगलों का विरोध नहीं किया। जयपुर राजघराना तब भी मुगलों के साथ था, जब औरंगज़ेब दिल्ली के तख्त पर था। औरंगज़ेब की कट्टर धार्मिक नीतियों के खिलाफ जयपुर कभी खड़ा नहीं हुआ। आज दीया कुमारी कह रही हैं कि शाहजहां ने उनकी जमीन कब्जा कर ली। लेकिन वे यह नहीं बतातीं कि इसके बाद भी उनके पुरखे औरंगजेब के चहेते और मनसबदार क्यों बने रहे?वैसे भी ताज़महल पर उठाया गया विवाद कोई अकादमिक विवाद नहीं है, बल्कि यह जनहित के असल मुद्दों से भटकाने और नफ़रत फैलाने की साज़िश है।

ताजमहल एक यूनेस्को संरक्षित इमारत है और वह एक विश्व धरोहर भी है। उस ज़मीन के कागज़ या दस्तावेज, जैसा कि दीया कुमारी दावा कर रही हैं, यदि उनके पास हैं तो यह एक अकादमिक शोध का विषय हो सकता है। भड़काऊ बयानबाजी और टीवी चैनलों पर रोज़ शाम को होने वाली डिबेट से न केवलसमाज में बिखराव बढ़ेगा, बल्कि दुनियाभर में जगहँसाई भी होगी। ताजमहल, दुनिया की सात सबसे अजूबा समझी जाने वाली वैश्विकधरोहरों में से एक है। भारत भ्रमण पर आने वाले हर पर्यटक की इटिनियरी में ताज अवश्य शामिल होता है। रहा सवाल अकादमिक शोध का, तो सरकार के पास इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च जैसी संस्था है, वह उसे उन कागजों की वास्तविकता जांचने और सत्य तक पहुंचने का दायित्व सौंप सकती है। आगरा,आर्कियालॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया का एक क्षेत्रीय मुख्यालय भी है और एक सुपरिटेंडेंट आर्कियोलॉजिस्ट वहां नियुक्त भी है।


ताजमहल केकारण आगरा और आसपास प्रदूषण को लेकर अक्सर लोग सजग रहते हैं। समय समय पर दिये गए, सुप्रीम कोर्ट के कई महत्वपूर्ण फैसले भीमौजूद हैं, जो ताज के बारे में सुप्रीम कोर्ट की चिंता को रेखांकित करते हैं। प्रदूषण न हो इसलिए ताज नगरी आगरा, जैसा कि आगरावासी कहते हैं, को नो पॉवर कट जोन में बहुत पहले से रखा गया है, ताकि डीजल जेनरेटर का धुंआ वातावरण को प्रदूषित न कर सके।पड़ोस में स्थित, मथुरा रिफायनरी की चिमनी से निकल कर विषैला धुंआ, कहीं ताज की चमक न फीकी कर दे, इसलिए न सिर्फ उसकी चिमनियां ऊंची की गईं, बल्कि रिफाइनरी में ऐसेआधुनिक यन्त्र लगाए गए हैं कि प्रदूषण कम से कम हो और यदि विषैला उत्सर्जन हो तो भी उसकी दिशा आगरा की तरफ न हो। यही नहीं, आगरा से लगी हुई अलीगढ़ रोड पर खंदारी में भारी संख्या में फाउंड्री उद्योग हैं, उन पर भी नजर रखी जाती है। एक बार ताजमहल के पास कूड़े के ढेर में किसी ने शरारतन आग लगा दी थी, तो पूरे जिले में अफरातफरी मच गयी थी, क्योंकि इस मामलेमें सुप्रीम कोर्ट ने अखबार में खबर छपते ही संज्ञान ले लिया था।

अब यदि इस थियरी कोहम मान भी लेते हैं कि वहां कोई शिवमन्दिर था, तो क्या जयपुर राज घराने ने शाहजहां को मंदिर उजाड़ने या उस पर ताज बनाने की इजाजत दी थी या वे बादशाह के आगे इतने बेबस थे कि मक़बरा बनता रहा और जयपुर राजघराना अपना मनसब छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सका? यदि यह बेबसी नहीं थी तो क्या उनमें इतनी क्लीवता थी कि वे उसके बाद भी सालों तक मुगलों के खैरख्वाह बने रहे? दीया कुमारी ने यह सब सोचा ही नहीं होगा कि जब वे इतिहास के गलत तथ्यों के आधार पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के एक घृणित और विभाजनकारी राजनीतिक एजेंडे का उपकरण बन कर इस विवाद में पड़ेंगी तो उन्हें बेहद असहज करनेवालेसवालों का सामना करना पड़ेगा। सोशल मीडिया पर यह सब हो भी रहा है। इस तमाशे के लिए इस नफरती गिरोह का वे एक औजार बनकर रह गई हैं।

जयपुर राजघराना न तो बेबस था और न ही क्लीव। उस राजपरिवार के राजा मान सिंह अकबर के सेनापति थे और मुग़ल साम्राज्य के पहले राजपूत सेनापति थे। राजा मानसिंह नेअकबर के लिए 22 लड़ाइयां लड़ीं और सबमें उन्होंने विजय प्राप्त की। उनकी शौर्य गाथा काबुल, कंधार तक फैली। बंगाल का सूबेदार उन्हें अकबर ने हीबनाया था। आमेर रियासत के राजा सदैव मुगलों के नजदीकी और दस हजारी मनसबदार रहे। यह सिलसिला औरंगजेब के बाद भी चलता रहा। शिवाजी को दक्षिण से हरा और मना कर मुग़ल दरबार लाने वाले मिर्जा राजा जय सिंह ही थे, पर जब शिवाजी को छोटे मनसबदारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया गया तो उन्होंने सख्त ऐतराज किया। दरबार में मचे शोर पर जब औरंगज़ेब ने पूछा कि यह हंगामा क्यों है, तब उसे मिर्ज़ा राजा जय सिंह ने बताया कि जहाँपनाह, वह पहाड़ी राजा है और दिल्ली की गर्मी बरदाश्त नहीं कर पा रहा है। काइयां औरंगज़ेब वास्तविकता समझ गया और उसी के बाद शिवाजी को वहीं दरबार में ही गिरफ्तार कर लिया गया।

ये ऐतिहासिक तथ्य यह बताते हैं कि मेवाड़ और कुछ अन्य को छोड़कर राजस्थान के लगभग सारे राजघराने मुग़लों के वफादार रहे। जयपुर तो मुग़लों का सबसे खास और नज़दीकी राजघराना रहा है। दोनों में आपसी वैवाहिक संबंध भी रहे हैं, इसका भी इतिहास में उल्लेख मिलता है. दो राजवंशों में आपसी वैवाहिक संबंध अधिकतर पारिवारिक ज़रूरतों की वजह से नहीं, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक उद्देश्यों के कारण होते रहे हैं।

मध्ययुगीन इतिहास लेखन प्राचीन इतिहास की तुलना में दस्तावेजी स्रोतों से भरा पड़ा है। अक्सर प्राचीन भारत के इतिहास के अध्ययन और उस काल के इतिहास लेखन के समय सबसे बड़ी समस्या स्रोतों की होती है। पुराण, महाकाव्य, पुरातत्व और भाषा विज्ञान आदि के अध्ययन के बाद इतिहास की तह तक पहुंचना पड़ता है, पर मध्यकालीन इतिहास, जिसका कालखंड 1205 ई से 1757 तक माना जाता है, के लेखन और अध्ययन के समय स्रोतों के अभाव की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है। उस काल के दरबारी इतिहासकारों के विवरण के अतिरिक्त अनेक यात्रा वृतांत, शाही फरमान, राजाओं के आपसी पत्राचार और तत्कालीन साहित्य भी उपलब्ध हैं। इसलिए मध्यकालीन इतिहास की संस्थापनाओं पर विवाद की गुंजाइश कम ही होती है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने ताजमहल के 22 बंद कमरों और तहखानों के खोले जाने कीयाचिका को तो खारिज कर दिया, पर जनता में ताजमहल से जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों के जानने की जिज्ञासा जगा दी है। लोगो ने गूगल किया और उसके इतिहास के बारे में जानकारी भी ली। एक बड़ा विवाद है ताजमहल के कभी न खुलने वाले बंद कमरों पर. यह बात बिल्कुल सही नहीं है किताज़महल के इन बंद कमरों को कभी खोला नहीं जाता है। आज ताजमहल के यही बंद कमरे और तहखाने एक बार फिर तर्कवितर्क काकारण बने हुए हैं। पर्यटकों के लिए इसे खोले जाने को लेकर कुछ लोग न्यायालय तक पहुंच गए, इससे तो यही अहसास होता है कि ये तहखाना विशेष है और कुछ छुपाए हुए है। मगर इन तहखानों से जुड़े तथ्य कुछ अलग ही बात बताते हैं। आगरा से छपने वाले अखबार यह बताते हैं कि इस विवाद के मात्र तीन माह पहले ही यह तहखाना, रखरखाव और संरक्षण के लिए एएसआई द्वारा खोला गया था और उसकी मरम्मत का काम भी हुआ था। इस काम पर एएसआई ने करीब छह लाख रुपये खर्च भी किये।

ताजमहल में दो तहखाने हैं। एक मुख्य गुंबद के नीचे, जिसमें मुमताज और शाहजहां की मुख्य कब्रें हैं और दूसरा चमेली फर्श के नीचे। कब्र वाला तहखाना पर्यटकों के लिए विशेष अवसर पर खोला जाता है, लेकिन दूसरा तहखाना लगभग 50 साल पहले पर्यटकों के लिए बंद कर दिया गया था। एएसआई केवल संरक्षण कार्य के लिए ही इसे खोलता रहा है। इसी साल जनवरीफरवरी में इसे खोला गया था। तहखाने की दीवारों की दरारों को चूने के पतले प्लास्टर से भरा गया था. वेंटिलेटर पर जाली लगाने के अलावा अंदर के दरवाजों को पेंट किया गया था। यह एक निर्धारित और नियमित प्रक्रिया है, जो एक तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार चलती रहती है।

अखबारों की ख़बरों के अनुसार, कमरों के रहस्य और कभी न खोले जाने के आरोपों के बारे में सवाल करने पर, आगरा के अधीक्षण पुरातत्वविद राजकुमार पटेल ने बताया कि ऐसा नहीं है कि स्मारक के बंद हिस्सों को कभी खोला नहीं जाता हो, सप्ताह या दस दिन में मरम्मत की जाती है और उन्हें खोला जाता है। एएसआइ के निदेशक रहे डी. दयालन ने अपनी किताब ‘ताजमहल एंड इट्स कंजर्वेशन’ में वर्ष 1652 से लेकर वर्ष 2006-07 तक हुए सर्वेक्षण कार्यों का ज़िक्र किया है और लिखा है कि वर्ष 1975-76 में तहखाने की छत, मेहराब व दीवारों के खराब हुए प्लास्टर को हटाकर दुबारा चूने का प्लास्टर किया गया। वर्ष 1976-77 में भी तहखाने और कमरों की मरम्मत की गयी थी।

ताजमहल की हालत के बारे में 2005 में सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, रुड़की ने ताजमहल का जिओ टेक्निकल एंड स्ट्रक्चरल इंवेस्टिगेशन सर्वे किया था। इसकी अंतरिम रिपोर्ट 2007 में सीबीआरआई ने सरकार और आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को दी थी। सीबीआरआई के सुझावों पर एएसआई ने यहां संरक्षण कार्य किया गया था। एएसआई के पूर्व निदेशक डी. दयालन ने अपनी किताब ‘ताजमहल एंड इट्स कंजर्वेशन’ में सीबीआरआई द्वारा दी गई इस अंतरिम रिपोर्ट को भी शामिल किया है। रिपोर्ट में सीबीआरआई ने कहा था कि परीक्षण के बाद पता चला है कि स्मारक के लिए कोई संकट नहीं है। पत्थरों के बीच के जोड़ों को अच्छी तरह से सील कर दिया गया है। चमेली फर्श के नीचे तहखाने में कुछ जगह दीमक मिली है। स्मारक के परिवेशीय कंपन अध्ययन में स्मारक के विभिन्न हिस्सों में प्राकृतिक 1.5 हर्ट्ज की वेव पाई गई।

अतः यह कहना कि उन कमरों में कोई रहस्य छिपा है या मंदिर है या वे कमरे जानबूझकर कुछ छिपाने के लिए लगातार बंद हैं और कभी खोलेनहीं जाते हैं, तथ्यों के विपरीत और जनता में सनसनी फैलाने जैसाहै। राजकुमारी दीया जब यह दावा करती हैं कि यह जमीन उनके पुरखों की है, तो वे यह बताना भूल जाती हैं कि इसके बदले में राजा जयसिंह को शाहजहां ने चार हवेलियां दी थीं। शाहजहां ने जिस जगह को ताजमहल के निर्माण के लिए चुना था, बिल्कुल वह राजा मानसिंह की थी। इसकी पुष्टि 16 दिसंबर,1633(हिजरी 1049 के माह जुमादा 11 की 26/28 तारीख) को जारी फरमान से होती है। शाहजहां द्वारा यह फरमान राजा जयसिंह को हवेली देने के लिए जारी किया गया था। फरमान में जिक्र है कि शाहजहां ने मुमताज को दफन करने के लिए राजा मानसिंह की हवेली मांगी थी। इसके बदले में राजा जयसिंह को चार हवेलियां दी गई थीं। यह फरमान आर्काइव्स में सुरक्षित है। जमीन के आदान प्रदान के बाद ताजमहल के बारे में यह विवाद स्वतः स्पष्ट हो जाता है।

यहां यह बात उल्लेखनीय है कि आगरा तो कभी जयपुर या आमेर की रियासत में रहा नहीं तो फिर आगरा जो मुगलों की राजधानी थी, वहां जयपुर राजघराने को ज़मीन कहां से मिली?

इसका उत्तर हैकिअकबर ने जब राजा मान सिंह को अपना सेनापति और बड़े ओहदे वाला मनसबदार बनाया, तब यह जमीन उन्हें जागीर के रूप में दी थी। वही जमीन शाहजहां ने चार हवेलियों के बदले ताजमहल के लिए ली। आमेर और मुगलों के संबंध सदियों तक रहे हैं। यहां तक कि औरंगजेब के समय में भी। अब यह बात विश्वास से परे है कि जय सिंह ने उस जमीन में बने किसी शिव मंदिर को ही चार हवेलियों के बदले दे दिया या वे इतने बेबस थे कि शाहजहां ने उनसे यह मंदिर की जमीन छीन ली और उनके सामने ही उसे तोड़ कर मक़बरा बना दिया।

यह सारा वितंडा पुरुषोत्तम नागेश ओक की किताब ताजमहल या तेजोमहालय के बाद शुरू हुआ है। ओक, अपनी किताब में जो तथ्य देते हैं, उनका कोई भी अकादमिक इतिहासकार समर्थन नहीं करता है। ताजमहल, स्थापत्य की दृष्टि से दुनियाभर में अपना विशिष्ट स्थान रखता है न कि किसी बादशाह और उसकीमलिका की कब्र के कारण। ताज के निर्माण और स्थापत्य की उसकी विशिष्टताओं पर अलग से एक स्वतंत्र लेख लिखा जा सकता है।

-विजय शंकर सिंह

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