भगवा-भय और तिरंगी यादें

आजादी की 75 वीं वर्षगांठ

ज़रूरी है कि हम देशप्रेम की रौ में हीरक जयंती के इस महान अवसर को घरों में, कारों में झंडा लगाने की औपचारिकता में ही न व्यतीत कर दें। हमें राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत के बारे में जानना-समझना चाहिए। उसके इतिहास, उसकी परम्परा और मूल्यों को जानना चाहिए। हमें पंद्रह अगस्त को सिर्फ़ आज़ादी ही नहीं मिली, प्रजातंत्र भी मिला, संसदीय व्यवस्था भी मिली और 26 जनवरी, 1950 को संविधान भी मिला।

आज देश में लोकतंत्र, संविधान, संसद, स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों की जो हालत है, उसमें नौ व पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी की दूरगामी, सार्थक भूमिका हो सकती है. ये तिथियां सही दिशा और समझ देने में सहायक हो सकती हैं, देश और जन-हितकारी सोच के लिए वैचारिक स्फुरण दे सकती हैं।

सरकारों के जनविरोधी कामों और रवैये के चलते इन राष्ट्रीय पर्वों में औपचारिकता भरती गयी, सरकारों का इसमें फ़ायदा ही था, सो उन्होंने वैसा होने दिया और ये अवसर अपनी जनाभिमुखता, जीवंतता और चमक खोते चले गये, आये-गये हो गये। भला ‘घर-घर तिरंगा’ से किसे एतराज़ होगा? अभी कुछ साल पहले तक राष्ट्रध्वज ख़ुद नियम-क़ानूनों के बंधनों में जकड़ा हुआ था. अदालत ने उसे उन्मुक्त किया और तब से वह ख़ूब फहरा रहा है. हमारी स्वतंत्रता के हीरक जयंती वर्ष में स्वतंत्रता के प्रतीक तिरंगे का वैभव निश्चित रूप से चौतरफ़ा और ख़ूब दिखना चाहिए. एक नज़र में दस हज़ार दिखें! लेकिन सरकार की मूल मंशा इस ऐतिहासिक अवसर को तमाशे और हो-हल्ले में बिता देने की है. इनकी फ़ितरत हर चीज़ को तमाशे में बदल देने वाली है, कि अच्छा-ख़ासा अवसर अनदेखा चला जाए, फिर वह महामारी हो या अमृत वर्ष!

इस सरकार के पास आज़ादी के इन सालों में अपना कुछ जोड़ा हुआ बताने लायक़ है नहीं, सिवाय उन दुःस्वप्नो़ं और नाकामियों के जो असहाय जनता पर टूट पड़ी हैं। इसी कारण राष्ट्रवाद के उफान और शोर में स्वतंत्रता, संविधान, संसद तथा मानवाधिकारों के ज्वलंत सवालों के साथ जनता के जीवन-मरण और स्वाभिमान के प्रश्नों को डुबो देने का यह विराट आयोजन बन गया। यह अवसर जितने जश्न का है, उतने ही गहरे सोच-विचार का है। पर इनके पास सब चीजों का हल धर्म और राष्ट्रवाद है। संघ-सरकार के देशप्रेम की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि उन्होंने अपने धर्मध्वजी भक्तों के हाथों में राष्ट्रध्वज थमा दिया है!

तिरंगे को इस तरह कट्टर राष्ट्रवाद का इश्तहार बनाना दुर्भाग्य ही है. रघुवीर सहाय की कविता की पंक्ति को थोड़ा बदलकर कहें तो, ‘जितने झंडे लगे, उतनी बड़ी आड़ हो गयी।’ सोशल मीडिया में धड़ाधड़ लोगों ने तिरंगा लगा लिया है, यह भी ख़ुशी की ही बात है। तिरंगे के साथ तस्वीरों वालों की ख़ुशी देखते ही बनती है, कनपटी तक खिली बाँछे! हैरत है कि तिरंगे से जुड़ी तार-तार होती विरासत को लेकर आज तक एक भी तस्वीर, न भक्तों की दिखी और न उनके ‘भगवान’ की। इनमें बहुतेरे वे होंगे, जिन्हें महामारी के हाहाकारी हालात को लेकर कोई विकलता नहीं थी और जो मुदित मन ताली-थाली बजा रहे थे।


उस समय 1942 में देश गहरी निराशा में डूबा हुआ था. दुनिया ‘विश्व युद्ध’ में जल रही थी, हमारे विदेशी आकाओं ने मनमाने ढंग से भारत को महायुद्ध में शामिल घोषित कर दिया था, हमलावर चौखट तक आ पहुँचे थे, हमारी स्थिति मूकनिष्क्रयता की थी। किसी भी तरह से अहिंसक आंदोलन के लिये कोई गुंजाइश नहीं थी, तब गाँधीजी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ यह कहते हुए छेड़ दिया कि सारी दुनिया के राष्ट्र मेरा विरोध करें और सारा भारत मुझे समझाये कि मैं ग़लती पर हूँ, तो भी मैं भारत की ख़ातिर ही नहीं, परन्तु सारे संसार की ख़ातिर भी इस दिशा में आगे बढ़ूँगा। वे मानते थे कि अहिंसा के रूप में उनके पास ईश्वर प्रदत्त अमूल्य भेंट है, यदि वर्तमान संकट में वे इसका इस्तेमाल नहीं करते तो ईश्वर उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा। जवाहरलाल नेहरू समेत तमाम नेता उस वक़्त आंदोलन को लेकर भारी भ्रम की मनःस्थिति में थे। पर अपने संकल्प और अडिग विश्वास से गाँधीजी ने विरोध को शांत कर सभी को सहमत किया, काँग्रेस उनके पीछे खड़ी हो गयी और आंदोलन में कूद पड़ी।

जनता और नेताओं में घर कर गयी निराशा को लक्ष्य करते हुए गांधी जी ने कहा था कि निराशा का मूल, हमारी अपनी कमज़ोरियों और अविश्वास में होता है। जब तक हम अपने में भरोसा नहीं खोते, तब तक भारत का कल्याण ही होगा। कहने को तो सरकार ने आंदोलन को दबा दिया, पर इसने लोगों की चेतना को झकझोर दिया, उनमें नये प्राणों का संचार हुआ। जबलपुर में 8-9 अगस्त की रात जनरल राउंड अप में मेरे पिता गणेश प्रसाद नायक भी गिरफ़्तार हुए और बिना पैरोल के क़रीब तीन साल बाद रिहा हुए। उनके घनिष्ठ संगी-साथी सभी सेनानी थे. उनके पास संग्राम के चकित करने वाले क़िस्से थे।

देश भर में 42 की क्राँति के अनंत क़िस्से थे. बिहार में कई क्षेत्रों सहित बलिया, सितारा, मिदनापुर को आज़ाद करा लिया गया था। आंदोलन शुरू होने के तीसरे ही महीने हज़ारीबाग़ जेल की दीवार फलाँग कर फ़रार हुए जयप्रकाश नारायण ‘देश की हठी जवानी’ के पर्याय हो गये थे. अरुणा आसिफ़ अली की हैसियत ‘हीरो’ की थी। सुभाष महानायक हो चुके थे। गाँधीजी भूमिगत होकर काम करने के ख़िलाफ़ थे। उनकी सलाह पर अच्युत पटवर्धन इससे अलग हो गये, पर अरुणा आसफ़ अली भूमिगत कार्रवाई में लगी रहीं। गाँधीजी को लगने लगा था कि जनता अहिंसा को पूरी तरह पचा नहीं पायी है। उनके सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि आगा ख़ां पैलेस में कारावास के दिनों में यह विचार उन्हें मथता रहता था कि ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में अहिंसा मानने वालों की तुलना में उन लोगों ने अधिक वीरतापूर्वक काम किया जो अहिंसा को नहीं मानते थे।

महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू के बेजोड़ नेतृत्व के कारण काँग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी। गाँधीजी के अहिंसक आंदोलन की भूमिका निर्णायक थी, पर इसमें वे तमाम अनाम लोग शामिल हैं, जो आज़ादी के आंदोलन में सहायक हुए। भगत सिंह से लेकर शहादतों का लम्बा सिलसिला है। यह बात ध्यान रखने की है कि बुनियादी तौर पर अहिंसक होते हुए भी आज़ादी हमें बहुत ख़ून देकर मिली है, जलियांवाला बाग़ इसकी एक बड़ी मिसाल है।

इसलिए यह ऐहतियात ज़रूरी है कि हम देशप्रेम की रौ में हीरक जयंती के इस महान अवसर को घरों में, कारों में झंडा लगाने की औपचारिकता में ही न व्यतीत कर दें। हमें अपने राष्ट्रीय संग्राम के बारे में धीर धर के सोचना चाहिए। उसके बारे में जानना-समझना चाहिए। उसके इतिहास, उसकी परम्परा और मूल्यों को जानना चाहिए। हमें पंद्रह अगस्त को सिर्फ़ आज़ादी ही नहीं मिली, प्रजातंत्र भी मिला, संसदीय व्यवस्था भी मिली और 26 जनवरी, 1950 को संविधान भी मिला।

हमने समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, समानता और समान अवसर के मानवीय मूल्यों को अंगीकार किया। हमने बँटवारे की त्रासदी, साम्प्रदायिक रक्तपात और गाँधीजी की शहादत के बाद अनेकता में एकता, विविधता और भाईचारे की भावना को स्वीकार किया। पचहत्तर साल की यह यात्रा अनेक दु:स्वप्नों से होकर गुज़री पर इसने कीर्तिमानों की एक अमिट शिला भी निर्मित की, जिस पर हमें गर्व होना चाहिए।

यह आवश्यक है कि हम इस अवसर का उपयोग तटस्थ आकलन में करें और उसमें एक ज़िम्मेदार व संवेदनशील नागरिक के तौर पर अपनी भूमिका की भी निर्मोही समीक्षा करें। इस अवसर को मात्र एक भव्य उत्सव की भेंट न चढ़ने दें। आम जन से लेकर सरकारों, राजनीतिक दलों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों सबको यह मंथन करना चाहिए कि हम आगे कैसे अपनी विरासत को न सिर्फ़ संभालें, बल्कि उसका विकास और परिष्कार करें। हमें स्वतंत्रता बहुत कुछ देती है, जैसे देश और समाज हमें देते ही रहते हैं। आप वही करिये, जो करने में सक्षम और विशिष्ट हों. तिरंगा लगाकर तिरंगे की भावना बनी रहे, ऐसा कुछ करिये! -सप्रेस

-मनोहर नायक

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