आखिर क्यों बढ़ रही है बेरोजगारी?

बातचीत

देश में बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। कहा जा रहा है कि पिछले 45 वर्षों में देश में बेरोजगारों की संख्या इस समय सर्वाधिक है। पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, लेकिन बेरोजगारी को कहीं भी मुद्दा नहीं बनाया जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों है? इन सवालों पर इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, जेएनयू के जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार से बातचीत की है सर्वोदय जगत के संपादक राम दत्त त्रिपाठी ने और उनके साथ हैं, द इंडियन पोस्ट के संपादक कुमार भवेशचंद्र।

रामदत्त त्रिपाठी का सवाल : अभी रेलवे की भर्तियों वाले मामले में कुल पदों की संख्या 1 लाख 40 हजार थी, लेकिन इसके लिए ढाई करोड़ लोगों ने अप्लाई किया। पिछले कुछ वर्षों या दशकों में जिस तरह से बेरोजगारी बढ़ी है, उस पर किसी भी सरकार ने न तो गंभीरता से विचार किया, न ही कुछ करने की सोच रहे हैं, जबकि देश में मैन्यूफैक्चरिंग की भी खूब बातें होती हैं। आप लोग कहते हैं कि देश में जॉबलेस ग्रोथ हो रही है, लेकिन क्या वजह है कि देश में रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं?

रामदत्त त्रिपाठी


प्रो. अरुण कुमार : देखिये, इसकी असली वजह यह है कि अर्थव्यवस्था में हम जिस तरह की नीतियां अपना रहे हैं, उससे नये रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं। 1991 के बाद हमने जो आर्थिक नीतियां अपनायीं, उसके चलते ही ये प्रो बिजनेस नीतियां अमल में आयीं, इसको सप्लाई साइड बोलते हैं। इनका आधार बाजारीकरण है। यानी बाजार आगे है और समाज पीछे है। बाजार की जो नीतियां होती हैं, उनका सबसे पहला सिद्धांत होता है कि वहां डॉलरवोट चलता है। यानी अगर मेरे पास एक डॉलर है तो एक वोट है, और अगर एक लाख डाॅलर हैं, तो एक लाख वोट हैं। अब जिसके पास एक लाख डॉलर है उसकी चलेगी, जिसके पास सिर्फ एक डॉलर है, उसकी नहीं चलेगी। अभी पूंजी वहां जाती है, जहां बाजार है। जैसे यूपी को देखें, वहां की पूंजी बांदा में नहीं जायेगी, वहां जायेगी, जहां उसको बाजार मिलेगा, यूपी की पूंजी दिल्ली के आसपास नोएडा और गाजियाबाद में जायेगी? यूपी का मतलब बांदा नहीं है, उसका मतलब है नोएडा और गाजियाबाद।

प्रो. अरुण कुमार


हमारी जो नीतियां हैं, इनके कारण हमारी अर्थव्यवस्था में 80 प्रतिशत इनवेस्टमेंट तो केवल संगठित क्षेत्र में जाता है। संगठित क्षेत्र में केवल 6 प्रतिशत लोग काम करते हैं और जो असंगठति क्षेत्र है, जहां 94 प्रतिशत लोग काम करते हैं, वहां केवल 20 प्रतिशत इनवेस्टमेंट है। इससे भी ज्यादा परेशानी की बात यह है कि कृषि क्षेत्र में, जहां 45 प्रतिशत लोग काम करते हैं, वहां केवल 5 प्रतिशत इनवेस्टमेंट जाता है। अब आप सोचें कि 45 प्रतिशत के लिए केवल 5 प्रतिशत इनवेस्टमेंट जा रहा है और 6 प्रतिशत लोगों के लिए 80 प्रतिशत। इस प्रकार दोनों जगहों से रोजगार नहीं पैदा हो रहा है। संगठित क्षेत्र में सादा काम मशीनों से होता है, इसलिए वहां रोजगार पैदा नहीं होता है। अब जैसे बैंकिंग क्षेत्र को ही लीजिए। बैंकों में सारा काम मशीनों से हो रहा है। बैंकों का काम भले 100 गुना बढ़ गया हो, लेकिन वहां काम करने के लिए आदमी की जरूरत कम हो गयी है और रोजगार पैदा नहीं हो रहे हैं। इसी को हमलोग जॉबलेस ग्रोथ कहते हैं। इसी प्रकार कृषि में देखें। अब ज्यादा से ज्यादा बुल्डोजर, ट्रैक्टर, हारवेस्टर आदि का इस्तेमाल हो रहा है। एक यूनिट कृषि में उत्पादन बढ़ता है, लेकिन रोजगार जीरो पैदा हो रहा है।


हमारे देश में रोजगार नहीं बढ़ रहा है, उसके रिफ्लेक्शन से बेरोजगारी का आंकड़ा भी बढ़ता नहीं दिखता है, क्योंकि हमारे यहां सोशल सिक्यूरिटी नहीं है। हमारे यहां जब काम बंद हो जाता है, तो आप यह नहीं कह सकते कि मैं घर बैठ जाऊंगा और जब तक मेरे मुताबिक काम नहीं मिले, मैं काम नहीं करूंगा। अमेरिका, ब्रिटेन या यूरोप में तो बेरोजगारी भत्ता मिलता है, तो वहां के लोग इंतजार कर सकते हैं जब तक सही काम नहीं मिल जाता, लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं है। हमारे यहां लोग रिक्शा चलायेंगे, ठेला लगायेंगे, तो इनको मान लिया जाता है कि यह रोजगार हो गया। इस तरह से बेरोजगारी का जो आंकड़ा पहले 3-4 प्रतिशत के आसपास रहता था, वह 7-8 प्रतिशत हो जाता है, लेकिन यह ज्यादा बढ़ता हुआ नहीं दीखता है, इसलिए हमारे यहां अंडर इम्लायमेंट बढ़ जाता है। रिक्शे वाला अगर अपने स्टैण्ड पर दिन भर खड़ा रहता है, तो उसको दो-तीन घंटे का काम मिलता है। यही हाल ठेले, खोमचे वालों का भी होता है। लेकिन इन सबको रोजगार मान लिया जाता है। तो हमारे यहां कृषि में डिसगाइज इम्प्लायमेंट है और बाकी के क्षेत्रों में अंडर इम्प्लायमेंट है। यही वजह है कि हमारे यहां बेरोजगारी का आंकड़ा ज्यादा नहीं दिखता है।


रामदत्त त्रिपाठी का सवाल : हमारे पास भले ही बेरोजगारी का आंकड़ा न हो, लेकिन एक आंकड़ा तो है कि सरकार को 80 करोड़ लोगों को अनाज देना पड़ रहा है। अगर उनके पास रोजगार होता, तो सरकार को अनाज नहीं देना पड़ता। तो क्या हम ये मान सकते हैं कि कम से कम ये 80 करोड़ लोग बेरोजगार तो हैं ही, देश के 80 करोड़ लोग आत्मनिर्भर भी नहीं हैं?


प्रो. अरुण कुमार : आपने सही कहा कि ये आत्मनिर्भर नहीं हैं। परंतु जब हम बेरोजगारी का आंकड़ा गिनते हैं, तो उसमें वे लोग कुछ न कुछ करते हुए पाये जाते हैं। दो चीजें होती हैं, पहली यह कि इनकी तनख्वाह कितनी है? और दूसरी यह कि इनको काम कितने घंटे मिल रहा है? अगर इनको काम दो घंटे ही मिल रहा है, तो आमदनी कम हो जायेगी। तनख्वाह भले ज्यादा हो, लेकिन अगर काम ही कम मिल रहा है, तो घर का खर्च तो नहीं चलेगा। जैसे मनरेगा में साल भर में केवल 100 दिन का ही काम मिल सकता है। मान लीजिये, पांच व्यक्तियों का परिवार है तो हर एक व्यक्ति के लिए केवल 20 दिन का काम है। 20 दिन के काम में आप 365 दिन का खर्च कैसे चलायेंगे? और सच्चाई यह है कि आज 100 दिन की जगह केवल 50 दिन का काम मिल रहा है। यानी प्रति व्यक्ति 10 दिन का काम।


अगर आपके पास कोई दूसरा काम नहीं है, तो आप तो भूखे हैं। इसलिए हम ये तो नहीं कह सकते कि 80 करोड़ बेरोजगार हैं, पर हां 80 करोड़ गरीब जरूर हैं, क्योंकि इनकी आमदनी सही नहीं है। इन्हीं तकनीकी कारणों से हमारे यहां बेरोजगारी का आंकड़ा ज्यादा दिखता नहीं है। हम यह कह सकते हैं कि रोजगार अधिक से अधिक पैदा होना चाहिए। चाहे वह मनरेगा में मिले या अन्य किसी क्षेत्र में। हम तो कहते हैं कि शहरों में भी अर्बन रोजगार गारंटी स्कीम चलनी चाहिए। बेरोजगारी शहरों में भी है।
रेलवे वाले मामले में जो हंगामा हुआ, उसके पीछे वजह ये है कि नौजवानों में हताशा और निराशा है। ये सवाल लाख नौकरियां 2019 में निकली थीं, जिसके लिए दो करोड़ 30 लाख लोगों ने अप्लाई किया। इसी तरह उत्तर प्रदेश में 2015 में चपरासी की 360 नौकरियां निकली थीं। वह पाचवीं पास लोगों के लिए ही थी, लेकिन 380 पीएचडी स्कॉलर्स ने अप्लाई किया, दो लाख बीटेक एमटेक होल्डर्स ने अप्लायी किया। कुल 23 लाख लोगों ने अप्लाई किया था उसके लिए। यह स्थिति हताशा और निराशा ही दिखाती है कि कोई भी कितनी भी डिग्री ले ली, पर उसके मुताबिक काम नहीं मिल रहा है। असंगठित क्षेत्र एक तरह से अदृश्य हो गया है। हमारे नीति निर्माताओं के ध्यान में आंकड़ों में वह कहीं नहीं हे। इसके पीछे सरकार की गलत नीतियां हैं। जब तक नीतियां नहीं बदलेंगी, कुछ नहीं होगा।


इस हालत के पीछे कारण यह है कि1947 से ही हमने ट्रिकल डाउन की नीति अपनायी है। ट्रिकल डाउन का मतलब यह है कि ऊपर ऊपर डेवलपमेंट हो जाय और रिस्क नीचे चला जाय, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दुनिया के जितने भी बड़े राष्ट्र हैं, उनमें सबसे ज्यादा असंगठित क्षेत्र हमारे यहां हैं। इसीलिए महामारी का सबसे अधिक असर हमारे यहां ही पड़ा है। असंगठित क्षेत्र की पूंजी बहुत कम होती है, उसमें आपका हफ्ता, दस दिन काम न हो, तो पूंजी खतम हो जाती है। दुबारा काम शुरू करना मुश्किल हो जाता है। हमारी सरकार असंगठित क्षेत्र की तरफ ध्यान नहीं देती है, इसलिए उसके आंकड़ों पर भी उसका ध्यान नहीं है। जीडीपी के आंकड़ों से ही मान लिया जाता है कि असंगठित क्षेत्र उसी तरह चल रहा है जैसे संगठित क्षेत्र चल रहा है। अब संगठित क्षेत्र तो बढ़ रहा है, क्योंकि वहां पर पूंजी जा रही है, वहां से डिमांड आ रही है, लेकिन असंगठित क्षेत्र गिर रहा है। इसलिए सरकार जो यह कहती है कि हमारा रेट ऑफ ग्रोथ 8 प्रतिशत है या इस साल 9 प्रतिशत हो जायेगा, या पिछले साल साढ़े 7 प्रतिशत तक गिरा, उसमें असंगठित क्षेत्र के आंकड़े आते ही नहीं। जब सरकार कहती है कि पिछले साल साढ़े 7 प्रतिशत की गिरावट थी, असंगठित क्षेत्र को भी उसमें जोड़ लें, तो दरअसल वह 30 प्रतिशत की गिरावट थी। अगर वे कहते हैं कि इस साल 9.5 प्रतिशत की बढ़त होगी, तो मानिये कि 0 प्रतिशत की बढ़त हो रही है, क्योंकि असंगठित क्षेत्र तो उसमें गिना ही नहीं जा रहा है, एक तरह से अदृश्य हो गया है। असंगठित क्षेत्र की तरफ सरकार ध्यान नहीं देती है, इसलिए जो बेरोजगारी है, उसके पीछे गलत नीतियां हैं। जब तक इन नीतियों को सही तरीके से लागू नहीं किया जायेगा, तब तक बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती ही रहेगी।


कुमार भवेश का सवाल : अलग-अलग जितने सर्वे आ रहे हैं, सभी बता रहे हैं कि कोरोना ने गंभीर रूप से हमारे ऊपर असर किया है। अभी लेटेस्ट सर्वे जो आया है, उसके अनुसार हमारी 20 प्रतिशत आबादी की आय 50 प्रतिशत से ज्यादा कम हुई है। आखिर गलती कहां हो रही है सरकार से? अगर नीतियां ठीक नहीं है, तो इसे कैसे ठीक किया जा सकता है? सरकार का तो इस पर जोर होना चाहिए कि अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर है, वह जमीन पर ज्यादा व्यावहारिक दिखायी दे।

कुमार भवेश


प्रो. अरुण कुमार : देखिये, जैसा हमने कहा कि नई आर्थिक नीतियों के चलते अब सारी नीतियां बाजार के ऊपर आधारित हैं। जो पब्लिक सेक्टर पहले डॉमिनेट करता था, जिसे लीडिंग सेक्टर माना जाता था, अब वह लीडिंग सेक्टर नहीं है। अब बाजार लीडिंग सेक्टर है। कहा जाता है कि बाजार में सरकार की दखलंदाजी ज्यादा नहीं होनी चाहिए, सरकार अधिक से अधिक बाजार को सपोर्ट करे। आत्म निर्भर भारत स्कीम जब 2020 में आयी, तो गरीब आदमी की नौकरी जा चुकी थी। 90 प्रतिशत ने कहा कि हमारे पास खाने पीने के पर्याप्त साधन नहीं हैं। उनको केवल 3.5 लाख करोड़ रुपये दिये गये, यानी जीडीपी का केवल 1.5 से 2 प्रतिशत। और बाकी का जो था, वह सारा लिक्वीटी था, लोन था। उसके चलते सरकार ने कहा कि हम कृषि में तब्दीली लायेंगे और तीन कानून ले आये। उनका उद्देश्य था कि किसी तरह कृषि कारपोरेट सेक्टर में आ जाय। देश का 86 प्रतिशत किसान पहले से ही परेशान, बेहाल हैं। उनके ऊपर और लोड डालने की यह योजना थी।


इसी प्रकार लेबर कोर्ट ला रहे हैं, लेबर वैसे ही परेशान हैं, उनके ऊपर और प्रो-कारपोरेट नीतियां थोपी जा रही हैं। सरकार को लगता है कि इस समय कोई अपोजिशन बचा नहीं है, इसलिए जो नीतियां हम लागू करना चाहते हैं, बिना किसी विरोध के कर सकते हैं। यह जो फ्रेमवर्क है, ये ही गलत है। जैसा हमने कहा कि असंगठित क्षेत्र अदृश्य हो गया है। वह न डेटा में आता है, और न पॉलिसी में आता है। आत्म निर्भर भारत पॉलिसी में एमएसएमई सेक्टर को पूरा क्लब कर दिया। अब एमएसएमई को क्लब करने का मतलब है कि माइक्रो, स्माल और मीडियम ये तीनों को एक साथ कर दिये गये। अब माइक्रो सेक्टर स्माल और मीडियम से तो बिलकुल अलग है। हमारी अर्थव्यवस्था में माइक्रो सेक्टर 6 करोड़ यूनिट है। यह बड़ी यूनिट है, जो स्टॉक मार्केट में रजिस्टर्ड है, जबकि 6 लाख यूनिट स्माल और मीडियम सेक्टर हैं। माइक्रो यूनिट में 1.7 का एवरेज रोजगार होता है, जबकि स्माल और मीडियम सेक्टर में 20 से अधिक का रोजगार होता है । वहां पर 50 करोड़ का कैपिटल होता है, यहां पर 5-10 लाख का कैपिटल होता है। कुल मिलाकर जहां पर 97.5 प्रतिशत रोजगार है, उसके लिए अलग से कोई नीतियां हैं ही नहीं। जो भी नीतियां हैं, वह स्माल और मीडियम के लिए हैं।


सरकार की नीतियां सप्लाई साइड पर आधारित हैं, बाजारीकरण पर आधारित हैं। वे प्रो-कारपोरेट नीतियां हैं। जो गरीब आदमी है, जो असंगठित क्षेत्र है, जिसके पास रोजगार नहीं है जो कृषि में है, जिसके पास परेशानी है, उस पर सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही है। परेशानी का एक कारण यह है कि मजबूत विपक्ष नहीं होने के कारण जो सरकारें आ रही हैं, वे प्रो-कॉरपोरेट नीतियां ही अपना रही हैं। ऐसा नहीं है कि यह अभी हो रहा है, यह 1990-91 से, जब नई आर्थिक नीतियां आयीं, तब से चला आ रहा है, अभी तो चरम सीमा पर पहुंच गया है। जब दिख रहा है कि पैंडेमिक के पहले ही साल में सबसे ज्यादा बेरोजगारी हमारे देश में हो गयी थी और अब उससे कहीं ज्यादा बढ़ गयी है, फिर भी सरकार रोजगार पैदा करने के लिए तत्पर नहीं है। इनवेस्ट कर भी रही है, तो कहां कर रही है? बड़े बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में। इन इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में कोई ज्यादा रोजगार तो पैदा होता नहीं। पहले एक सड़क बनाने में सैकड़ों लोग काम करते दिखते थे, अब सड़क बन रही है तो चार-पांच लोग काम करते दिख रहे हैं। बड़े-बड़े बुल्डोजर, ट्रैक्टर्स, बड़े बड़े क्रेन्स काम कर रहे हैं। इसलिए इन प्रोजेक्टों में रोजगार पैदा होता नहीं दिखायी दे रहा है। सरकार को चाहिए कि छोटे छोटे प्रोजेक्ट लाये, उसमें स्थानीय लोगों को अवसर दिया जाय, उसमें बड़ी बड़ी मशीनें न हों।


गांव में इन्फ्रास्ट्रक्चर बहुत कमजोर है, शिक्षा बहुत कमजोर है और स्वास्थ्य की बहुत कमी है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में जब इनवेस्टमेंट होगा, तो रोजगार पैदा होगा। क्योंकि यहां लोगों की आवश्यकता होती है। जितने टीचर आप रखेंगे, डॉक्टर रखेंगे, टेक्नीशियन रखेंगे, उतना रोजगार पैदा होगा। कोठारी कमीशन में 1968 में कहा गया था कि 6 प्रतिशत जीडीपी का इनवेस्टमेंट पब्लिक एजूकेशन में होना चाहिए, लेकिन अभी भी कभी 4 प्रतिशत से अधिक नहीं हुआ। ज्यादा से ज्यादा 3.3 या 3.8 प्रतिशत होता है। उसी तरह पब्लिक स्वास्थ्य सेक्टर में कम से कम 3 प्रतिशत इनवेस्टमेंट होना चाहिए था, लेकिन कभी 1.3 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हुआ। अगर इस समय सरकार शिक्षा, स्वास्थ्य और छोटे छोटे इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में गांव में इनवेस्ट करे, तो बहुत रोजगार पैदा हो सकता है। जो लोग कृषि में फंसे हुए हैं, वे बाहर निकलकर नॉन एग्रीकल्चर इम्प्लायमेंट में आ सकते हैं, लेकिन सरकार की ऐसी नीतियां नहीं हैं। सरकार केवल कॉरपोरेट को फायदा पहुंचाने में लगी हुई है।


कुमार भवेश का सवाल : आपने सही कहा कि सरकार अगर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में इनवेस्टमेंट करेगी, तो एक्टिविटी बढ़ेगी और रोजगार का सृजन भी होगा। लेकिन क्या वजह है कि सरकारें उधर ध्यान न देकर, कारपोरेट की ओर ध्यान दे रही है? इसके पीछे आर्थिक तर्क के रूप आपकी क्या राय है? क्या यह केवल मंशा की बात है, जिससे जीडीपी वगैरह में सुधार दिखाया जा सके?


प्रो. अरुण कुमार : देखिये, यह तो पॉलिटिक्स है। जो लोग चंदा देते हैं, जो लोग सरकार को कंट्रोल करते हैं, वे बड़े बड़े कारपोरेट के लोग हैं। आप और हम तो कारपोरेट को कंट्रोल नहीं करते हैं, इसलिए सरकार के लोग ध्यान उधर ही देंगे, जहां से पैसा आता है। आपने देखा होगा कि जो एक बिजनेस घराना है, वह सबसे ज्यादा टेलीकॉम में कंट्रोल कर रहा है। एक दूसरा बड़ा घराना है, वह एयरपोर्ट को डॉमिनेट कर रहा है। इन्फ्रास्ट्रक्चर में उसका डॉमिनेशन बढ़ रहा है, वह कह रहा है कि बाकी इन्फ्रास्ट्रक्चर भी मैं क्रिएट कर रहा हूं। कृषि के क्षेत्र के इन्फ्रास्ट्रक्चर में भी यही दोनों बड़े बिजनेस हाउस इनवेस्ट कर रहे हैं। ये सप्लाई चेन को भी कंट्रोल करना चाहते हैं। साफ है कि हमारे लिए क्रोनीक कैपीटलिज्म का महत्त्व बहुत रहा है। यह क्रोनीक कैपीटलिज्म बहुत पुराना है। देश का सबसे बड़ा बिजनेस हाउस 1970 के दशक से कैसे तेजी से आगे बढ़ा, वह क्रोनीक कैपीटलिज्म था और यह क्रोनीक कैपीटलिज्म अब चरम पर आ गया है। पालिटीशयन्स बड़े बड़े बिजनेस हाउसेज के कंट्रोल में रहते हैं। क्रोनीक कैपीटलिज्म की वजह से ही ये जो नीतियां हैं कि इलेक्शन में बहुत सारे वाद कर दिये जाते हैं। वादा किया गया था कि 2 करोड़ रोजगार हर साल पैदा करेंगे, यह बहुत अच्छी बात थी, लेकिन डेलीवर तो नहीं हुआ, लेकिन जो बिजनेस हाउसेज हैं, वहां पर डेलीवरी होती है। जहां आम जनता चाहती है, वहां पर नहीं। जनता को बरगला दिया जाता है। इमोशनल इश्यू क्रिएट कर दिये जाते है, उन्हें वोट मिल जाता है। जो असली मुद्दे हैं, उससे भटक जाते हैं।


इसके पीछे बाजारीकरण है, कंज्यूमरिज्म है। हर साल आपका नया आईफोन आ जायेगा। ये लोग लड्डू दिखा देते हैं जनता को कि देखो कितनी तरक्की हो रही है, बड़ी बड़ी कारें आ रही हैं, टेलीविजन आ रहे हैं। जनता भटक जाती है। इमोशनल इश्यू आ जाते है, वोट मिल जाते हैं। मैंने देखा है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी में जब शिक्षक परेशान होते थे, तो 600-800 लोग निकल आते थे और धरना करते थे। जब 2014-15 मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी का प्रेसीडेंट था, तो मुश्किल से 25-30 लोग निकलते थे, क्योंकि सबको छठवें वेतनमान में 5-6 लाख तक का एरियर मिल गया, लोगों ने कारें खरीद लीं, इसलिए अब लोग निकलना नहीं चाहते। अब सरकारें भी पैंतरेबाजी करती हैं, वे अब बहुत सारे पार्ट टाइम टीचर रखने लगी हैं। पार्ट टाइम टीचर की हिम्मत नहीं होती है कि वह सरकार की नीतियों के खिलाफ बाहर निकलें। अब दिल्ली यूनिवर्सिटी के 12 हजार टीचर्स में से 25-30 निकलते हैं, उस समय 3 हजार टीचर्स में से 500-600 टीचर निकल आते थे, तो प्रोटेस्ट हो जाता था। अब गलत नीतियों का प्रोटेस्ट नहीं हो पा रहा है। सरकार को लगता है कि जब हमारा कोई विरोध ही नहीं कर रहा है, तो हमें जो करना है वह करेंगे। इसलिए मजबूत विपक्ष की जरूरत है।


रामदत्त त्रिपाठी का सवाल : आपने बहुत अच्छी तरह से बताया कि क्यों प्रो पीपुल पॉलिसी नहीं बन पा रही है और क्यों सारी पॉलिसी बाजार की तरफ जा रही हैं, इसकी वजह से रोजगार भी नहीं क्रिएट हो रहा है और गरीबी भी बढ़ रही है। जैसा आपने बताया कि किन एरियाज में इनवेस्टमेंट होना चाहिए, हम देखेंगे कि इनवेस्टमेंट हो रहा है कि नहीं।
प्रो. अरुण कुमार : दो-तीन बात फिर कह देता हूं। मनरेगा का बजट बढ़ाना चाहिए। एक अर्बन इम्प्लायमेंट गारंटी स्कीम भी शुरू करनी चाहिए, जो थोड़ी मुश्किल है, लेकिन हो सकती है। जीएसटी से असंगठित क्षेत्र पर बड़ी बुरी मार पड़ रही है। जीएसटी में रिफार्म करना बहुत जरूरी है। कृषि में इनवेस्टमेंट बढ़ाना चाहिए। सरकार की तरफ से कृषि में इनवेस्टमेंट गिर गया है। ये चार चीजें जब सरकार करेगी, तो नीचे के तबकों को फायदा पहुंचेगा और गरीबी कम होगी।

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