गांधी से डर और गोडसे से प्रेम किसको है?

सरकारी बुलडोजर साबरमती आश्रम में गांधी की विरासत को ध्वस्त करने का काम शुरू कर चुके हैं। चंपारण से गांधी की प्रतिमाओं को तोड़ने की खबरें आ रही हैं। देश की हर अदालत में न्याय अधिष्ठान के पीछे गांधी की फोटो लगती है, लेकिन साबरमती आश्रम का ध्वंस रोकने के लिए गांधी के प्रपौत्र की जनहित याचिका को गुजरात हाईकोर्ट ने सुनवाई लायक भी नहीं समझा। सवाल यह है कि जिस व्यक्ति की 74 साल पहले हत्या हो चुकी है, उनसे किसे और क्यों डर लग रहा है? उसकी स्मृतियों को मिटाने का संगठित प्रयास सत्ता के सहयोग से क्यों हो रहा है?

 

दक्षिण अफ़्रीका के बाद महात्मा गांधी की दूसरी कर्मभूमि और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम की सबसे प्रभावशाली प्रयोगशाला चंपारण में लगातार गांधी की प्रतिमाओं को तोड़ा जा रहा है। ऐसी एक अमानवीय घटना में पैर को छोड़कर सारा शरीर ज़मीन पर पड़ा है. दूसरी घटना में गांधी प्रतिमा को विकृत किया गया है. इससे पहले कस्तूरबा गांधी के साथ गांधी प्रतिमा को तोड़ डाला गया. यह सब इंसानियत को शर्मसार करने वाला है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी पर पूरे राज्य में समारोह कर गांधी के महान अनुयायी होने का ख़िताब लिया, पर इसके तुरंत बाद उन्होंने सत्ता के लिए ऐसा पाला बदला कि अब वह गांधी के अपमान पर भी ख़ामोश हैं। कुछ रोज़ पहले गुजरात के एक विद्यालय में छात्रों को भाषण प्रतियोगिता के लिए एक विषय दिया गया ‘मेरा रोल मॉडल : नाथूराम गोडसे।’ और यह विषय दिया गुजरात सरकार की यूथ डेवलेपमेंट अफसर ने।। गोडसे भक्त कुछ सालों से गांधी के पुतले पर गोली चलाकर उन्हें फिर से मारने का घिनौना सार्वजनिक प्रदर्शन करते आ रहे हैं. तीस जनवरी को महात्मा गांधी की शहादत के दिन एक फ़िल्म रिलीज़ हुई है, ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’, यानी हत्या को सही और तर्कसंगत ठहराने का संगठित प्रयास और तेज हो गया है।

सरकारी बुलडोज़र पहले ही स्वतंत्रता आंदोलन के दूसरे बड़े प्रेरणा केंद्र साबरमती आश्रम, अहमदाबाद में गांधी की विरासत को ध्वस्त करने का काम शुरू कर चुके हैं। साबरमती आश्रम की विरासत को विकृत करने का काम स्वयं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देखरेख में हो रहा है।
देश की हर अदालत में गांधी की बड़ी-बड़ी फ़ोटो लगती है, लेकिन गुजरात हाईकोर्ट ने महात्मा गांधी के प्रपौत्र की जनहित याचिका को सुनवाई लायक़ भी नहीं समझा, तो फिर गांधी को न्याय कौन देगा?

संसद ने महात्मा गांधी के निरंतर अपमान अथवा उनकी विरासत को बिगाड़ने के लिए हो रहे कार्यों को चर्चा के लायक़ भी नहीं समझा। आश्चर्य न होगा यदि कुछ समय बाद नाथूराम गोडसे की फ़ोटो भी नए संसद भवन में लग जाए। उनके गुरू दामोदर विनायक सावरकर की पहले ही लग चुकी है। जिस व्यक्ति की 74 साल पहले हत्या हो चुकी है, आखिर उससे किसे और क्यों डर लग रहा है? उसकी स्मृतियों को मिटाने का संगठित प्रयास सत्ता के सहयोग से क्यों हो रहा है?

कारण बहुत साफ़ है। आज भारत को जिस दिशा में ले जाने का प्रोजेक्ट चल रहा है, उसकी सबसे बड़ी बाधा गांधी ही है। गांधी ने एक सौ तेरह साल पहले हिंद स्वराज में जो खाका खींचा है, उसके मुताबिक भारत को किसी एक जाति अथवा धर्म की प्रधानता अथवा वर्चस्व वाला देश नहीं बनाया जा सकता। गांधी के रहते न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, सर्व- धर्म समभाव और क़ानून के शासन जैसे मूल्यों को स्थापित करने वाला संविधान खत्म नहीं किया जा सकता।

जब तक गांधी का विचार और उसको मानने वाले लोग जीवित हैं, तब तक इंसान को मशीन का ग़ुलाम बनाने के प्रोजेक्ट का विरोध होता रहेगा। जब तक चरखे से अंग्रेज़ी राज की चूलें हिलाने की ताक़त याद रहेगी, तब तक लोग एक चुटकी नमक उठाकर शोषक सत्ता को चुनौती देते रहेंगे। जब तक गांधी विचार जीवित है, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक सांस्कृतिक और सामाजिक सत्ता के केंद्रीकरण का प्रोजेक्ट पूरा नहीं हो सकता। जब तक गांधी विचार जीवित है, एक अकेला व्यक्ति भी अपने आत्मबल के दम पर राज्य की सम्पूर्ण दमन शक्ति के ख़िलाफ़ भी निर्भय होकर खड़े होने की प्रेरणा प्राप्त करता रहेगा। गांधी विचार जब तक जीवित है, राम को रहीम से लड़ाने की कोशिश कामयाब नहीं होगी। गांधी विचार जब तक जीवित है, गोमाता की रक्षा के नाम पर इंसान के क़त्ल का विरोध होता रहेगा। 1975 में बूढ़े और बीमार जय प्रकाश की ताक़त गांधी का विचार ही था।

गांधी ने सौ साल से भी पहले चंपारण में जिस सत्याग्रह के हथियार से किसानों की अथवा अहमदाबाद में कपड़ा मिल कर्मचारियों की निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, उसी का इस्तेमाल आज भी किसान मज़दूर कर रहे हैं। उसी शांतिपूर्ण अहिंसात्मक संघर्ष की तकनीक से किसानों ने कृषि बाज़ार को चंद पूंजीवादी घरानों को सौंपने के ख़िलाफ़ अभी-अभी एक सफल लड़ाई लड़ी है।

गांधी ने कोचरब आश्रम में एक दलित बालिका को गोद लेकर इस देश में छुआ-छूत के ख़िलाफ़ जो लड़ाई लड़ी, व्यावहारिक रूप में वह अब भी अधूरी है। गांधी आज भी ग़रीबों और पीड़ितों की ताक़त हैं, लेकिन गांधी विचार को वे लोग अभी भी नहीं पचा पा रहे हैं, जिनके पूर्वजों की रियासतें भारत के नये संविधान ने छीन लीं, जिनके पूर्वजों की ज़मीनें लेकर भूमिहीनों में बांट दी गयीं, जिनके मंदिर शूद्रों के लिए खोल दिये गये और अस्पृश्यता को ग़ैर क़ानूनी करार दे दिया गया, जिनके विशेषाधिकार समाप्त कर क़ानूनन सबको समान दर्जा और कमजोरों को विशेष अवसर दिये गये।

गांधी के कर्म और विचार से प्रत्यक्ष लाभान्वित एक बड़े जन समुदाय को कंगाल बनाकर पांच किलो राशन, तेल और नमक देकर मुंह बंद रखने के लिए कहा जा रहा है और इसे नये लाभार्थी समुदाय का नाम दिया जा रहा है। अफ़सोस की बात है कि जहां एक तरफ गांधी विचार और स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों को मिटाकर राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक सत्ता का केंद्रीकरण करने पर आमादा ताक़तें संगठित और आक्रामक हैं, पुरानी व्यवस्था की प्रेमी ये ताक़तें आज बहुसंख्यक समाज को उसके धर्म और संस्कृति के लिए कल्पित ख़तरे से डराकर गोलबंद कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ इनसे असहमत ताक़तें बिखरी और डरी हुई हैं. इन्हें निर्भय और संगठित कर गांधी विचार, संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की रक्षा का काम आखिर कौन करेगा?

-राम दत्त त्रिपाठी

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