भारत की वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थितियां और हमारी भूमिका

भारत के बहुलतावादी समाज, मानवतावादी संस्कृति, संघीय व लोकतांत्रिक स्वरूप तथा धार्मिक सद्भाव की रक्षा और श्रम एवं प्राकृतिक संसाधनों की लूट, बेरोजगारी, महंगाई, सरकार संपोषित पूंजीवाद व सांप्रदायिकता को समाप्त करने का सामूहिक संकल्प।

अधिवेशन का आधार-पत्र

लोक-कल्याणकारी शासन की विडंबना : समाज, देश या राष्ट्र के सामने कभी-कभी ऐसी अभूतपूर्व चुनौतियां आ जाती हैं, जिनका सामना असाधारण सूझ-बूझ, जुझारू दृढ़ता एवं सामूहिक संकल्प के द्वारा ही किया जा सकता है। हमारा देश आज ऐसी ही चुनौतियों के समक्ष खड़ा है। वर्तमान केंद्रीय सरकार एवं दक्षिणपंथी प्रतिगामी विचारधारा से परिचालित केंद्र व कई राज्य सरकारों की कार्यवाइयों के चलते स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत, संविधान की प्रस्तावना में वर्णित आदर्शों एवं सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों के समक्ष खतरा उत्पन्न हो गया है। आहरणीय एवं प्राकृतिक अधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, न्याय के अवसर सीमित हो रहे हैं और राज्य की संस्थाएं अपना अस्तित्व खोती जा रही है। ईडी, सीबीआई, एनआईए जैसी संस्थाओं का दुरुपयोग कर विपक्ष एवं विरोधी दलों की सरकारों को येन केन प्रकारेण या तो गिराया जा रहा है या फिर उन्हें शरण में आने के लिए मजबूर किया जा रहा है। विपक्षविहीन एकतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था आरएसएस और भाजपा सरकार के एजेंडे पर है। सच्चाई को उजागर करने वाले पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और आम जनों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए संघर्ष करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को फर्जी मुकदमों में जेलों में बंद किया जा रहा है।

बेलगाम महंगाई और बेरोज़गारी का दौर : मजदूरों, किसानों, युवाओं और आदिवासियों के हकों की रक्षा करने वाले कानूनों को शिथिल किया जा रहा है या फिर बदला जा रहा है। जनता के अथक संघर्ष के द्वारा यूपीए सरकार के समय हासिल अधिकारों; भू-अर्जन कानून-2013, सूचना अधिकार कानून, खाद्य सुरक्षा कानून, वन अधिकार कानून-2005 आदि को निष्प्राण बनाने की कोशिश जारी है। तीन कृषि कानूनों के जरिये खेती-किसानी के कॉरपोरेटीकरण करने की साजिश को किसानों ने अपने जीवट संघर्ष के बल पर निरस्त करने में सफलता पाई, लेकिन इस बार गेहूं की कम खरीद कर सरकार ने अपना इरादा जाहिर कर दिया है। सेना को युवा बनाने के नाम पर अग्निपथ जैसी योजना लाई गई है। युवाओं की बढ़ती बेरोजगारी को हल करना सरकार की प्राथमिकता में नहीं है, यह अब पूरी तरह जुमलों में तब्दील हो चुका है। युवाओं में व्याप्त निराशा और क्षोभ अग्निपथ योजना की घोषणा के बाद व्यापक तोड़फोड़ के रूप में प्रकट हुआ है। सामाजिक सुरक्षा और लोक कल्याण की जिम्मेदारियों से सरकार अपने को अलग कर रही है तथा मनरेगा जैसी योजनाओं का आवंटन कम किया जा रहा है। आप सभी जानते हैं कि कोविड काल में मनरेगा योजना ग्रामीणों के लिए जीवनदायिनी योजना के रूप में सामने आयी है।

जहां एक और युवा बेरोजगारी जैसी समस्या से जूझ रहा है, वहीं आमजन महंगाई से त्रस्त है। महंगाई दर लाल निशान के ऊपर चली गयी है। एक तरफ आमदनी घट रही है और दूसरी तरफ महंगाई ने साधारण लोगों का बजट बिगाड़ दिया है। गैस, पेट्रोल, डीजल आदि की कीमतें आसमान छू रही हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा का खर्च बढ़ता ही जा रहा है। कॉलेजों की फीस बढ़ाए जा रहे हैं और अस्पतालों की लूट को हम सभी ने कोविड काल में अच्छी तरह से देख लिया है।

संकट में है संविधान की शुचिता : यह लोक उपक्रमों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट का दौर है। वर्तमान केंद्र सरकार इस लूट का मार्ग प्रशस्त कर रही है। शास्त्रीय पूंजीवाद के स्थान पर सरकार संपोषित पूंजीवाद (क्रोनी कैपीटलिज्म) की नीति अपनाकर चिह्नित व्यापारियों को फायदा पहुंचाया जा रहा है। सरकार चुनिंदे पूंजीपतियों के प्रमोटर के रूप में कार्यरत है। रेलवे, एयरपोर्ट और नौ परिवहन पर एक ही व्यक्ति काबिज होता जा रहा है। संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित ‘समाजवाद’ और नीति निर्देशक तत्वों का यह खुला उल्लंघन है।


विगत दिनों विभिन्न राज्यों में आयोजित चुनाव परिणामों को लेकर भी संदेहजनक स्थिति का निर्माण हुआ है। चुनावों में पहले से भी जाति-धर्म समीकरण, धन और बाहुबल का इस्तेमाल होता रहा है। लेकिन प्रशासनिक हस्तक्षेप के द्वारा चुनावी नतीजों को प्रभावित करने का हथकंडा हाल में ज्यादा प्रचलित हुआ है। चुनाव आयोग की भूमिका भी प्रायः एक विशेष दल और उसके गठबंधन के प्रति झुकी हुई है। संसदीय जनतंत्र में चुनाव महत्वपूर्ण है, परंतु नतीजों की हैकिंग एक गंभीर संकट की ओर इशारा करती है।

मीडिया और संवैधानिक संस्थाओं की विध्वंसक भूमिका : पिछले 10 वर्षों में विमर्श के डिस्कोर्स बदलने की लगातार कोशिश हो रही है। अब जनता के मुद्दों- शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा, कल्याणकारी योजनाओं और अधिकार की बातें गौण की जा रही हैं और धार्मिक वर्चस्व स्थापित करने से संबंधित मुद्दों को वैचारिक पटल पर प्रमुखता से लाया जा रहा है। प्रगतिशील शक्तियां भी इन्हीं मुद्दों के इर्द-गिर्द प्रतिसाद के लिए विवश हो रही हैं। इस प्रकार के प्रचारात्मक काम में मीडिया की भूमिका अत्यंत नकारात्मक और विध्वंसकारी है। हर ऐसे मुद्दे को उन्मादी आवेग के साथ प्रस्तुत किया जाता है। लव जिहाद, तीन तलाक, हिजाब, तबलीगी जमात द्वारा कोरोना प्रसार और जनसंख्या विस्फोट आदि ऐसे ही मसले हैं। इनके द्वारा घृणा और दुराव की प्रवृत्तियों को बढ़ाया जाता है, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को ठोस बनाया जाता है।

एक वैचारिक समूह द्वारा विधायिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद संविधान की संरक्षक इकाई – न्यायपालिका को भी खोखला किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय तक नियंत्रण का वायरस पहुंच गया है। तीस्ता सीतलवाड़ और हिमांशु कुमार पर जिस तरह से जुर्माने और मुकदमे की ताकीद की गई है, वह हैरतअंगेज है। दीन-हीन, विपन्न विजय माल्या पर रु 2 हज़ार का और धनाढ्य सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार पर रु 5 लाख का जुर्माना लगाकर कोर्ट ने अपनी न्यायप्रियता का डंका बजा दिया है। बाबरी मस्जिद, राम जन्मभूमि विवाद तथा राफेल डील का फैसला इसी कड़ी में है। धारा 370, 35-A तथा पेगासस मामले में न्याय का विलंबीकरण अनायास नहीं है।

असहमतियों को कुचलने की साजिशें : इस तरह से देखा जाए तो भारत में प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी विचारधारा पर आधारित सर्वसत्तावादी शासन की स्थापना का प्रयास निरंतर तेज होता जा रहा है। संसदीय विपक्ष और जन विपक्ष को खत्म करने के नमूने रोज नजरों में आ रहे हैं. राहुल गांधी जैसे नेताओं को ही नहीं, बल्कि मेधा पाटकर जैसी सामाजिक कार्यकर्ता को भी फर्जी मुकदमों में फंसाकर किनारे करने की साजिश हो रही है। असहमति और विरोध की हर आवाज को दबाया जा रहा है। असंसदीय शब्दों की ताजा सूची से आलोचना की प्रखरता के कुंद हो जाने का खतरा है। संसद परिसर में अब कोई धरना, प्रदर्शन, उपवास नहीं होगा. अर्थात सरकार के विरोध में कोई कार्यक्रम न तो संसद के अंदर कर पाएंगे और न बाहर। याद रखें, किसानों को दिल्ली आने से रोका गया था। उनके रास्ते में कीलें गाड़ी गई थीं, कंटीले तारों के बाड़ लगाए गए थे और गड्ढे खोदे गए थे।

भारत राज्यों का संघ है, अर्थात यहां की राजनीतिक संरचना फेडरल है। लेकिन इस बीच संघीय स्वरूप को भी कई आघात लगे हैं, जिनमें से एक है -जीएसटी, वस्तु एवं सेवा कर प्रणाली। कई प्रकार के टैक्स पहले राज्य सरकारें वसूल करती थीं, पर बिक्री कर समेत कई कर ऐसे हैं, जो अब केंद्र सरकार द्वारा वसूले जाते हैं। वन नेशन, एक टैक्सेशन के नाम पर प्रांतीय सरकारों के दायित्वों और अधिकारों का केंद्रीकरण कर लिया गया है। इसमें से प्रांतीय सरकारों के हिस्से की राशि उन्हें मिल जानी चाहिए, उसे केंद्र सरकार रोक लेती है. खास तौर पर ऐसा बर्ताव विरोधी दलों की प्रांतीय सरकारों के साथ होता है। इस तरह से प्रांतों के अधिकार अब केंद्र सरकार की अनुकंपा के मोहताज हो गये हैं। यहां यह दिलचस्प तथ्य बताना उचित रहेगा कि राज्य सरकारों ने भी कर वसूली के अपने अधिकार को केंद्र सरकार को खुशी-खुशी सौंप दिया है। कोविड-19 के नियंत्रण के लिए तुगलकी लॉकडाउन की घोषणा भी प्रांतीय सरकारों के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण था।

तो ऐसे में हम क्या करें? : यह सब पढ़कर, जानकर कोई भी सचेत और संवेदनशील व्यक्ति दबाव में आ सकता है, निराश भी हो सकता है। हालांकि आप सभी इन परिस्थितियों से अनजान नहीं हैं। पर क्या गांधी, विनोबा, जयप्रकाश के विचारों से प्रेरित जमात को दबाव में आने या निराश होने का हक है? कतई नहीं। चुनौतियां चाहे जितनी कठिन हों, हम समुचित दृढ़ता के साथ उनका सामना करने का संकल्प रखते हैं-बिना किसी दुराग्रह तथा बिना किसी बदले की भावना के।

सर्व धर्म प्रार्थना को अभियान बनाना है : भारतीय समाज बहुलतावादी है। उसे एकरूप बनाने की कोशिश विकृतियों और प्रतिक्रिया को जन्म देगी। इसलिए हर समुदाय, संस्कृति, भाषा और धर्म को सम्मान देना, उसके लिए माहौल बनाना, उसके विकास के अवसर निर्मित करना हमारा कर्तव्य है। सर्वधर्म समभाव का सूत्र हमारे इस विचार को अभिव्यक्त करता है। भारत में कई धर्म हैं, उनमें न कोई छोटा है, न बड़ा है, भले ही उनकी संख्या कम या ज्यादा हो। हर धर्म को अपना समझना, सभी के प्रति समभाव रखना गांधीवादी परंपरा की विशिष्टता है। हमें आज इस सूत्र पर फिर से जोर देना है और समाज के विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच सर्व धर्म प्रार्थना को एक अभियान बना देना है। हम यह भी देख रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता को धर्म का विरोधी बताया जा रहा है। परंतु सर्वधर्म समभाव जहां समाज को जोड़ने की नीति है, वहीं धर्मनिरपेक्षता राज्य की संवैधानिक नीति है। इसका तात्पर्य है कि राज्य अपना निर्णय धर्म विशेष के प्रति दुराव या लगाव के आधार पर नहीं करेगा और राज्य का कोई धर्म नहीं होगा। धर्म एक निजी मामला है। नागरिक किसी भी धर्म को मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र है। जब भी कहीं किसी धर्म राज्य की स्थापना की कोशिश होती है तो उसका सबसे ज्यादा बोझ और खामियाजा कमजोर वर्गों, विशेषकर महिलाओं को भुगतना पड़ता है। हम देख रहे हैं कि अफगानिस्तान की महिलाओं ने जिन अधिकारों को हासिल किया था, उन्हें एक-एक कर तालिबानी सत्ता द्वारा छीना जा रहा है।

सामाजिक कुरीतियों का करें विरोध : इसी के साथ हमें परंपरा के नाम पर चली आ रही सामाजिक कुरीतियों, कर्मकांडों और पाखंड को दूर करने का भी अभियान चलाना है। हमें सामाजिक श्रेष्ठता के प्रतीक चिह्न को वर्जित करना है। हमारे समाज में मृत्यु भोज के रूप में एक जघन्य प्रथा कायम है। इसका क्या औचित्य है? हमारे ग्रामीण समाज में मृत्यु भोज की अनिवार्यता साधारण लोगों के ऊपर एक भारी आर्थिक बोझ के रूप में है। क्या समाज सिर्फ पूजा-पाठ से श्राद्ध कर्म संपन्न नहीं कर सकता है? हम यह भी देखते हैं कि किसी नौजवान की असामयिक मृत्यु के बाद भी श्राद्ध भोज का आयोजन होता है। एक संवेदनशील समाज कैसे किसी युवा की मृत्यु पर भोज खा सकता है? हमें ऐसी निष्ठुर प्रथाओं का डटकर विरोध करना चाहिए। कम से कम हमें श्राद्ध भोज का वर्जन तो जरूर करना चाहिए। समाज सुधार और धर्म सुधार की हमारे देश में एक गौरवशाली परंपरा रही है। हमें भी इन सुधारों को जारी रखना है। यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि इस संदर्भ में हमारी शिथिलता से ही नकारात्मक प्रवृत्तियों को बल मिलता है।

इस प्रसंग में हमें यह हमेशा याद रखना चाहिए कि विनोबा जी ने कहा था- यह युग, धर्म और राजनीति का नहीं, बल्कि रूहानियत और विज्ञान का है। विज्ञान ने हमारे जीवन को आसान बनाया है, लेकिन साथ ही विलासिता और विध्वंस के साधन भी जुटाए हैं। विज्ञान की दिशा तो रूहानियत तय करती है, मानवीय और नैतिक मूल्य निर्धारित करते हैं। विज्ञान के आविष्कारों से ज्यादा जरूरी है मनुष्य का वैज्ञानिक चिंतन। इस चिंतन प्रक्रिया से सत्य को परखने तथा परिस्थितियों के अवलोकन का सामर्थ्य विकसित होता है।

मूल्यों से संचालित हो राजनीति : साम, दाम, दंड और भेद; राजनीति के ये चार गुण माने गए हैं। वास्तव में ये गुण नहीं, अवगुण हैं। राजनीति का एक और सूत्र प्रचलित है कि इसमें सब कुछ जायज है। लेकिन गांधी जी ने राजनीति में सत्य, अहिंसा, पारदर्शिता, शुचिता और ईमानदारी जैसे नैतिक मूल्यों को स्थापित किया। आज की पतनशील राजनीति को फिर से इन मूल्यों की बुनियाद पर पुनर्गठित करने का दायित्व इस जमात पर है। पर यह तब संभव होगा, जब समाज भी इन मूल्यों पर आधारित हो। इसलिए हम राजनीति से बेरुखी का संबंध नहीं रख सकते, यह एक वास्तविकता है.

इसे हमें दिशा देनी है, लेकिन राज्यसत्तामुखी राजनीति द्वारा नहीं, जनसत्तामुखी राजनीति द्वारा। जनसत्ता की इकाइयों को मजबूत करके, ग्रामसभा और पंचायती राज को सशक्त करके, जनमत को जागरूक और संगठित करके हम इस लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। आज पंचायती राज व्यवस्था, विकेंद्रीकरण के बजाय राज्य के विस्तार के रूप में अस्तित्व में है। इसे सही मायने में जनता की इकाई के रूप में कायम करना है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता की सक्रियता और भागीदारी ही इसकी सफलता का मानदंड है। अधिकाधिक भागीदारी संपन्न लोकतांत्रिक व्यवस्था और नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीतिक संस्कृति के द्वारा ही आज के राजनीतिक माहौल को बदलना संभव है।

जब किसी सर्वसत्तावादी राजनीतिक विचारधारा को राज्यसत्ता का संबल मिल जाता है, तो वह बेलगाम, निरंकुश और उन्मत्त हो उठती है। ऐसी स्थिति में इस विचारधारा से संचालित दल को सत्ता से बेदखल करना भी तात्कालिक दायित्व है। हम इस दायित्व से मुंह नहीं मोड़ सकते।

युवाओं के नियोजन की समग्र योजना बननी चाहिए : भारत आज युवाओं का नहीं, बल्कि बेरोजगार युवाओं का देश बनकर रह गया है। युवाओं के श्रम एवं उत्पादन की प्रक्रिया से विच्छिन्न हो जाने के कारण उनमें गंभीर रिक्तता व अवसाद का निर्माण हो रहा है। युवाओं में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति इसी बात का संकेत है। इससे समाज में अवांछित गतिविधियों के बढ़ जाने का खतरा है। इसलिए युवाओं के नियोजन की समग्र योजना बननी चाहिए। नौकरी द्वारा हर किसी को रोजगार उपलब्ध नहीं कराया जा सकता, परंतु रिक्त पदों पर बहाली तो हो सकती है। हर युवा को श्रम एवं उत्पादन से जोड़ना अर्थव्यवस्था की प्राथमिकता व तदनुसार उसके पुनर्गठन पर निर्भर करता है। खेती, खादी, ग्रामोद्योग, कुटीर उद्योग, डेयरी उद्योग, खाद्य-प्रसंस्करण, छोटे व्यवसाय आदि को नीतिगत स्तर पर प्रश्रय तथा सहयोग प्रदान करना होगा। कुल मिलाकर कहा जाए तो अनौपचारिक क्षेत्र को औपचारिक क्षेत्र के बनिस्पत ज्यादा तवज्जो देनी होगी।

सर्वोदय जमात की भूमिका : सर्वोदय जमात कभी भी सिर्फ प्रतिक्रिया करने वाला समूह नहीं रहा है। रचनात्मक कार्यों के द्वारा समाज में वैकल्पिक व्यवस्था-निर्माण के प्रयासों की हमारी एक समृद्ध परंपरा रही है। गांधी जी के 18 रचनात्मक कार्यक्रम आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक की भूमिका में हैं। विनोबा जी द्वारा प्रणीत भूदान एवं ग्रामदान के जरिये साम्ययोग का अतुलनीय प्रयोग हुआ है। समत्व और सहयोग हमारे रचनात्मक कार्यक्रम की मूल चालक शक्ति है। इसी तरह खादी, गांधीवादी सर्वोदय समूह की प्राण शक्ति है। खादी विचार भी है और व्यवहार भी है। वस्त्र के संबंध में यह आत्मनिर्भरता का अभियान है, शोषण से मुक्ति में इसका सहयोग रहा है। हाथ से कता हुआ और हाथ से बुना हुआ ही खादी है। आज खादी को विकृत करने का प्रयास किया जा रहा है। खादी कमीशन द्वारा खादी संस्थाओं को पालतू बनाने की कोशिशें हो रही हैं। देश की शान-तिरंगे के लिए खादी के कपड़े की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई है। तिरंगे को अब चीन से आयात किया जा रहा है। आत्मनिर्भर भारत का ढिंढोरा पीटने वाली सरकार अपने राष्ट्रीय झंडे के मामले में भी अब आत्मनिर्भर नहीं रह गयी है। हमें रचनात्मक कार्यों की श्रृंखला को सूत्रबद्ध करके अनौपचारिक क्षेत्र के ऊपर मंड़रा रहे संकट को दूर करना है। इस लक्ष्य को हम अपनी रचनात्मक शक्ति के द्वारा ही अर्जित कर सकेंगे।

हमारा संकल्प : अतीत में भारत के विश्वगुरू होने और अब पुनः इस पद पर आसीन होने की कुंठित आकांक्षा वस्तुतः सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का ही एक रूप है। दुनिया में आज से 5 हजार वर्ष पहले कोई भी देश नहीं था, सभ्यताएं थीं। नदी घाटियों में पनपी इन सभ्यताओं ने मानव जाति को समृद्ध करने में अपना विशिष्ट योगदान दिया है। दुनिया में वैसे भी कोई देश कभी गुरू नहीं रहा। हम खुद को ही गुरू कहकर अपनी हीनता को संतुष्ट करते हैं। इसलिए सर्वोदय की विचारधारा ने देशों की प्रतिस्पर्धा से परे जाकर जय जगत का सूत्र अपनाया है। हम देशों के बीच में किसी भी तरह का भेदभाव नहीं चाहते। हम विश्वगुरू नहीं, बल्कि विश्वमित्र की परंपरा के उत्तराधिकारी हैं। हम एक हथियारविहीन और युद्धविहीन दुनिया बनाना चाहते हैं। हमें इस सामूहिक संकल्प को अत्यंत प्रखरता के साथ पुनः व्यक्त करना है।

हमने आप लोगों के सामने कुछ चुनिंदा कार्यभार प्रस्तुत किया है। इसके अलावा भी कई मसले हैं, जिन्हें जोड़ा जा सकता है। यहां बस कुछ सूत्र, कुछ दिशानिर्देश दिए गये हैं, जिनके आलोक में आप स्वतः आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र हैं। वैचारिक प्रभमण्डल की संपूर्ण मर्यादा और गरिमा के साथ एक अहिंसक और सत्यनिष्ठ समाज के निर्माण के लिए हम सभी संकल्पबद्ध हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Next Post

दो साल के काम का लेखा-जोखा

Fri Aug 26 , 2022
सर्व सेवा संघ के 89वें अधिवेशन के एक खुले सत्र में सर्व सेवा संघ के महामंत्री गौरांग चन्द्र महापात्र ने संगठन के कामकाज का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। प्रस्तुत हैं रिपोर्ट के मुख्य अंश। एक दिसम्बर 2020 को सर्व सेवा संघ का मंत्री बनने के बाद पहली बार मुझे 13 दिसम्बर […]

You May Like

क्या हम आपकी कोई सहायता कर सकते है?