छुआछूत के खिलाफ लड़ाई

जब बापू ने एक दलित कन्या को गोद लिया


-अनु वर्मा


9 जनवरी, 1915 को दक्षिण अफ्रीका से आने के पांच महीने के भीतर ही गांधी ने अहमदाबाद के पास कोचरब बंगले में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना कर ली थी। कई लोगों ने इस आश्रम को सार्वजनिक जीवन में गांधी के भविष्य के प्रयोगों की शोधशाला की संज्ञा दी है। आश्रमवासियों से गांधी को बहुत उम्मीदें थीं। इनमें उनके समाज और लोगों के आचरण को बदलने के उद्देश्य वाले राजनीतिक और सामाजिक विचारों का अनुकरण प्रमुख था।


आश्रम में दलित परिवार : दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद के खिलाफ लड़ी गई लड़ाई की पृष्ठभूमि में, गांधी ने भारत आकर अस्पृश्यता के खिलाफ एक आंदोलन को प्राथमिकता दी। अपने काम की प्रस्तावना के रूप में, उन्होंने एक दलित परिवार को आश्रम में रहने के लिए आमंत्रित किया। उस परिवार में दूदा भाई, उनकी पत्नी दानी बहन और उनकी दूध पीती बच्ची लक्ष्मी शामिल थी। एक दलित परिवार के रूप में उन्हें आश्रम के भीतर और बाहर दोनों जगह कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। जब गांधी ने पहली बार दूदा भाई की बेटी को अपने आश्रम में देखा तो उन्होंने कहा, ‘लक्ष्मी आज लक्ष्मी देवी की तरह मेरे घर में आयी हैं।’ महादेव भाई देसाई ने अपनी डायरी में उल्लेख किया है कि गांधीजी ने लक्ष्मी को अपनी पहली संतान कहा और उसे बेटी के रूप में अपनाया। दलित की बेटी को गोद लेने का यह विलक्षण कार्य गांधी जी के अस्पृश्यता से लड़ने के उनके आजीवन मिशन में सबसे महत्वपूर्ण और सबसे पहले कदमों में से एक था।


आश्रम के सख्त नियम : भारत में उनके आश्रमों में कई अछूत परिवार अन्य जातियों के लोगों के साथ रहे, जिनमें सनातन हिंदू भी शामिल थे और उन सभी के लिए एक ही रसोई घर का प्रावधान था। बनिया जाति में पैदा हुए गांधी ने दक्षिण अफ्रीका और भारत में अपने शौचालय की सफाई का कार्य खुद किया। उनके आश्रम में सभी आश्रमवासियों के लिए बारी-बारी से शौचालय साफ करने का नियम था। किसी के लिए इस नियम में कोई ढील नहीं थी।


बचपन के अनुभव : हालांकि लक्ष्मी को गोद लेना गांधी की अस्पृश्यता से लड़ने की दिशा में उठाए गए उनके कुछ पहले प्रत्यक्ष कदमों में से एक था, लेकिन यह इस समस्या से उनका पहला सामना नहीं था।


बचपन के अपने मित्र उका के साथ की उनकी यादें हमेशा उनके साथ रहती थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ’ में उल्लेख किया है कि ‘अगर मैंने गलती से उका को छुआ, तो मुझे स्नान करने के लिए कहा जाता था। हालांकि मैं स्वाभाविक रूप से आज्ञा का पालन करता था, लेकिन वह मुस्कुराते हुए विरोध किए बगैर नहीं होता था, साथ में यह भी बताते हुए कि अस्पृश्यता को धर्म द्वारा स्वीकृत नहीं किया गया हैं। मैंने अपनी माँ से कहा कि उका के साथ संपर्क को पाप मानना उनकी गलती थी। मैं यह ढोंग नहीं करता कि बारह साल की उम्र में यह बात मुझमें एक दृढ़ विश्वास के रूप में स्थापित हो गई थी, लेकिन मैं यह कहना चाहता हूं कि मैंने तब से छुआछूत को पाप माना था।’ गांधी उस विशाल चुनौती का सामना करने में कभी नहीं डगमगाए।


प्लेग रोग का प्रसंग : अस्पृश्यता के खिलाफ गांधी जी की कोशिशें भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के किसी भी अन्य नेता के प्रयासों से पहले से ही चल रही थीं। एक बार जब वे 1896 में छह महीने के लिए भारत आए, तो मुंबई में प्लेग रोग फैला हुआ था और राजकोट में फैलने का डर था। इसलिए उन्होंने स्वच्छता विभाग से वहां रहने वाले निवासियों के शौचालयों का निरीक्षण करने की अनुमति ली और वह यह देखकर चकित रह गए कि ऊंची जाति के लोगों के शौचालय भी गंदे और बदबूदार थे, जबकि निचली जातियों के लोगों के घर साफ-सुथरे थे और वे शौच के लिए खुले में जाते थे, क्योंकि वे शौचालय बनाने का खर्च नहीं उठा सकते थे।


गांधी और अंबेडकर :
गांधी और अंबेडकर दोनों एक-दूसरे के लिए बहुत सम्मान रखते थे, हालांकि उन्होंने इसे किसी सार्वजनिक मंच पर या लिखित रूप में स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया है। वे केवल दो मौकों पर एक दूसरे से मिले। विवेक शुक्ल अपनी पुस्तक ‘गांधीज़ दिल्ली’ में कहते हैं, ‘जब नेहरू और पटेल भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए सर गोर जेनिंग को आमंत्रित करने की सलाह लेने के लिए गांधी जी के पास आए तो गांधीजी ने संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए डॉ. अंबेडकर के नाम का सुझाव दिया, क्योंकि उनके अनुसार अंबेडकर के पास उत्कृष्ट कानूनी और संवैधानिक विशेषज्ञता थी। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि गांधी को डॉ. अंबेडकर की क्षमताओं और कौशल में बहुत विश्वास था।’ अपने अस्पृश्यता विरोधी अभियान के अंतर्गत फरवरी 1933 में गांधी जी ने इस समस्या का सामना करने के लिए सवर्ण हिंदुओं के साथ अछूतों को संगठित करने के उद्देश्य से एक अंग्रेजी भाषा साप्ताहिक ‘हरिजन’ का शुभारंभ किया। कोलोराडो स्थित नरोपा विश्वविद्यालय के पीस स्टडीज़ विभाग के संस्थापक प्रो. सुदर्शन कपूर लिखते हैं कि गांधी जी ने अंबेडकर को हरिजन के पहले अंक के लिए एक संदेश भेजने को कहा, मगर अंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया।


यरवदा जेल : अस्पृश्यता के खिलाफ गांधी की लड़ाई को 1933 में एक नया जोश मिला। यह अंबेडकर का गांधी के प्रति सम्मान ही था कि वे गांधी के यरवदा जेल के आमरण अनशन को तोड़ने के लिए 24 सितंबर 1933 को पुणे समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए सहमत हुए। गांधी के लिए, राजनीतिक रूप से यह उपवास, अछूतों के साथ अधिक सशक्त रूप से ‘प्रतिनिधित्व और पहचान’ बनाने में सहायक सिद्ध हुआ और अंबेडकर की अलग प्राथमिक चुनाव की मांग और हर प्रांतीय बजट में अछूतों की शिक्षा के लिए वित्तीय सहायता का वादा भी इसमें पूरा किया गया।


गांधी के अनशन ने देशवासियों पर बहुत प्रभाव डाला। हजारों सवर्ण हिंदुओं का हृदय परिवर्तन हुआ। अछूतों के लिए कई सार्वजनिक कुओं और मंदिरों के रास्ते खुले। उच्च जाति के हिंदुओं ने सार्वजनिक रूप से अछूतों को गले लगाया और सर्व-जाति भोज में भाग लिया। लुई फिशर अपनी पुस्तक ‘द लाइफ ऑफ महात्मा गांधी’ में कहते हैं, ‘बिना उपवास के, गांधी और अंबेडकर के बीच एक राजनीतिक समझौते से राष्ट्र पर ऐसा प्रभाव नहीं पड़ता।’


अस्पृश्यता के खिलाफ पैदल यात्रा :
उपवास के बाद, गांधी ने अस्पृश्यता को मिटाने पर और ज्यादा ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने 1933-34 में12,000 मील की दूरी तय करते हुए नौ महीने के लम्बे समय में लगभग हर प्रांत का दौरा किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गांधी के तथाकथित धर्मनिष्ठ सहयोगियों ने उनकी कार्रवाई पर सवाल उठाया। उन्होंने तर्क दिया कि गांधी अपनी ऊर्जा का अधिक हिस्सा ‘राजनीतिक गतिविधियों का नुकसान कर, धार्मिक मुद्दों पर’ पर खर्च कर रहे थे।


दत्तक पुत्री और उसकी शादी : एक और मुखर व्यक्तिगत फैसले के तहत गांधी ने अपनी दत्तक पुत्री लक्ष्मी की शादी गुजरात के एक ब्राह्मण लड़के मोरलय्या उर्फ मारुति के साथ करा दी।


यह एक ऐसा कदम था, जिसने गांधी के जाति के आधार पर लोगों की शादी या भोजन करने की प्रथा के विरोध को सुदृढ़ किया। नवंबर 1935 में, ‘जातियों का अंत जरूरी है’ शीर्षक वाले एक लेख में, गांधी ने तर्क दिया कि शास्त्रों में वर्णित जाति व्यवस्था, आज व्यवहार में न के बराबर है। जितनी जल्दी जनता की राय जाति व्यवस्था के खिलाफ़ हो, उतना बेहतर है। अंतर्विवाह या अंतर्भोजन का निषेध न कभी था और न होना भी चाहिए था।


दिल्ली में गांधी : अपनी पत्रिका हरिजन में गांधी ने बार-बार विद्यालयों और मंदिरों में प्रवेश के लिए किसी भी समुदाय पर प्रतिबंध को समाप्त करने की तत्काल आवश्यकता पर लिखा था। जब गांधी को 1939 में दिल्ली में लक्ष्मी नारायण मंदिर के उद्घाटन के लिए आमंत्रित किया गया, तो उन्होंने इस शर्त के साथ सहमति प्रदान की कि सभी जातियों के लोगों को इस मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दी जाएगी।


1946 में स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम चरण में गांधी दिल्ली के बाल्मीकि मंदिर में रुके थे। मंदिर बाल्मीकि बस्ती के परिसर के भीतर स्थित था, जो अछूतों की एक कॉलोनी थी। 214 दिनों तक, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे ऊंची शख्सियत का यहां रहने का विशेष महत्व था। उन्होंने यहां एक स्कूल शुरू किया, अपने प्रवास के दौरान इस कॉलोनी के बच्चों और वयस्कों को पढ़ाया और इस महत्वपूर्ण प्रयास के माध्यम से अस्पृश्यता से लड़ने के लिए शिक्षा के महत्व को रेखांकित किया। गांधी से मिलने के लिए कांग्रेसी नेता, कट्टरपंथी और अंग्रेज़ अधिकारी सभी को वाल्मीकि बस्ती आना होता था, प्रार्थना में हिस्सा लेना होता था और यहीं का पानी पीना होता था। गांधी के सहयोगी बृजकृष्ण चांदीवाला ने सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू, लॉर्ड माउंटबेटन तथा कई अन्य हिंदू और मुस्लिम नेताओं के यहां आने के बारे में लिखा है। जब स्वतंत्र भारत का भविष्य तय हो रहा था, तो यह सब एक हरिजन बस्ती में हुआ था।

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