गांधी विचार-दर्शन के प्रति यह रवैया क्या है?

गांधीवादी मॉडल की प्रासंगिकता का विमर्श

गांधीवाद पर आधारित शासन व्यवस्था का परीक्षण देश के किसी छोटे-से इलाक़े में भी नहीं किया गया, जिसके आधार पर आज यह तय होता कि गाँधीवाद प्रासंगिक है या नहीं। इस बात को न वे सोच-समझ पा रहे हैं, जो पूँजीवाद में मस्त हैं और न वे, जो पूँजीवाद से पस्त हैं।

मानवता के इतिहास में गांधी जी एक विलक्षण शख़्सियत हैं। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने उनसे प्रभावित होकर उनके बारे में कहा था कि आने वाली पीढ़ियाँ हैरत करेंगी कि कभी ऐसा व्यक्तित्व भी इस दुनिया में हुआ था। गाँधी जी एक महान राजनीतिज्ञ थे। लेकिन उनके अपने राजनैतिक सिद्धांत थे, जिन्हें उन्होंने स्वयं गढ़ा था। वे राज-काज वाले राजनीतिज्ञ नहीं थे, वे जनता के पक्ष में राजसत्ता से लड़ने वाले राजनीतिज्ञ थे और वह भी विदेशी राजसत्ताओं से। पहले दक्षिण अफ्रीका की नस्लभेदी सरकार से और बाद में साम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार से, जिसने क्षेत्रीय रजवाड़ों में बँटे भारत को ग़ुलाम बना रखा था। देश को एकता में बाँधकर भारत को स्वाधीन बनाना उनका उद्देश्य था। स्वतंत्रता प्राप्ति उनका अंतिम और परम लक्ष्य था। गाँधी जी की राजनीति इसकी प्रक्रिया थी। इस प्रक्रिया में कभी भी और कहीं भी बन्दूक़, हिंसा तथा साधनों की अशुचिता नहीं थी। इसमें केवल सत्य और अहिंसा एवं साधनों की पवित्रता के लिए जगह थी। राष्ट्र की स्वतंत्रता सर्वोपरि थी, लेकिन नागरिकता और व्यक्ति का सम्यक निर्माण भी महत्वपूर्ण विचार और कार्यक्रम था, जिसे लेकर गाँधी जी की जुझारू और जागरूक राजनीति चलती थी। अहिंसक आंदोलन के ज़रिये प्रेम और करुणा से विरोधी के हृदय परिवर्तन के द्वारा मिली स्वतंत्रता ही उनका अभीष्ट थी। वे अपने समय में हिंसक वामपंथी आंदोलनों के साक्षी थे। वे उनकी सफलता भी देख रहे थे और असफलता भी। वे देख रहे थे कि कैसे हिंसक क्रांति सत्ता प्राप्ति के बाद आपसी गुटों के संघर्ष में विभाजित हो जाती है और मूक दर्शक जनता कैसे-कैसे दुख उठाती है। इसलिए गाँधी जी स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्येक भारतीय की भागीदारी चाहते थे। वे जन-बल से सत्य और अहिंसा के बूते संग्राम जीतना चाहते थे, जिससे जनता अपने अधिकार और कर्तव्य को भली-भाँति समझ ले। अपनी समस्याओं और उनके हल को जान-पहचान ले। वह लोकतंत्र से अच्छी तरह विज्ञ और मानवता के प्रति प्रतिबद्ध हो। वह शोषणमुक्त और समतामूलक समाज बनाने की ज़रूरत समझे और आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो। और यह सब कैसे हो, वे अपने कर्म और लेखन से मार्गदर्शन करते चलते थे। ऐसा क्रांतिकारी राजनीतिज्ञ इतिहास में दूसरा कोई नहीं हुआ, जिसे महात्मा कहा गया हो। आज भी गाँधी हमारे और पूरे विश्व के लिए महात्मा गाँधी हैं।


महात्मा गाँधी के जीवन और दर्शन से प्रभावित होकर देश के अंदर ही नहीं, अपितु विदेशों में भी उनके लाखों अनुयायी हुए। साधारण से लेकर एक से एक असाधारण व्यक्तित्व वाले भी। एक ऐसे ही असाधारण व्यक्तित्व के धनी पं जवाहर लाल नेहरू ने स्वत्रंतता प्राप्ति के बाद गाँधी मूल्याधारित शासन-नीति की कमान सँभाली और देश को आगे बढ़ाया, वहीं दूसरे व्यक्तित्व संत विनोबा भावे ने गाँधी जी की जनवादी और लौकिक आध्यात्मिकता की बागडोर थामी तथा जनकल्याण के अनेक काम किये, जिनमें गाँधी विचार-दर्शन के प्रसार के लिए सर्व सेवा संघ की स्थापना और देश-भर में उसकी शाखाएँ खोलने का एक बड़ा काम था। उन्होंने भूमिहीनों को भूमि दिलाने के लिए महान भूदान आन्दोलन चलाया तथा चम्बल घाटी में जन-शांति और जन-समृद्धि के लिए दस्युओं का हृदय परिवर्तन कर बड़े पैमाने पर उनसे आत्मसमर्पण कराया।

वाराणसी में राजघाट स्थित सर्व सेवा संघ के परिसर में मैं जब भी जाता हूँ, इन दोनों महाविभूतियों के विचार-दर्शन से स्पंदित हो उठता हूँ। मुझे जहाँ इसके परिसर की प्रकृति आकृष्ट करती है, जिसके एक ओर गंगा की धारा दिखाई देती है तो दूसरी ओर वरुणा नदी का सुन्दर घुमाव और बहाव नज़र आता है, वहीं इसका विशाल प्रकाशन गृह भी बहुत प्रभावित करता है। गाँधी विचार-दर्शन और देश की सामयिक चिन्ताओं पर यहाँ से प्रकाशित पाक्षिक पत्रिका ‘सर्वोदय जगत’ का भी मैं ख़ासा प्रशंसक हूँ, जो देश भर के रेलवे स्टेशनों पर स्थित सर्वोदय बुक स्टालों पर बिकती है और सैकड़ों लोगों के हाथों में जाती है। विचारहीनता के इस दौर में गाँधी और विनोबा के विचारों की अलख जगाये यह पत्रिका हमारा ध्यान खींचती है और हमें सूचना व समाचारगत विश्लेषणों और विचारों द्वारा मानसिक रूप से समृद्ध करती है।

आज अक्सर गाँधी जी की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े किये जाते हैं, लेकिन हम जिस तरह के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पर्यावरण में जी रहे हैं, उसे ही तो बदलने और उन्नत तथा मानवीय बनाने का सपना गाँधी जी देख रहे थे। वह तो पूरा हुआ भी नहीं और कहा जा रहा है कि गाँधी जी अप्रासंगिक हो गए। है न विचित्र बात!

हाँ, विचित्र बात ही है कि शासन-प्रशासन की नीतियों में केवल शासन-प्रशासन की नीतियाँ दिखाई देती हैं, गाँधी-नीति नहीं। शोषण मुक्त श्रम, गाँव स्तर तक का स्वावलंबन, समानता, चरित्र की आदर्शवादिता, सत्य, अहिंसा आदि उनके विचार मूल्यों की देश की राजनीति में जगह ही नहीं रह गई है। गाँधी जी के मूल्यवान आन्दोलन के चलते देश आज़ाद क्या हुआ कि लोगों ने गाँधी जी के अपनाये और बताये मूल्यों से ही आज़ादी ले ली !

आज साम्यवाद को अप्रासंगिक कहा जाता है तो सही कहा जाता है, जिसे सही ठहराने की वजहें विश्व के अनुभवों में है। साम्यवादी सत्ताएँ अस्तित्व में आकर अप्रासंगिक हुईं, लेकिन गाँधीवादी विचारों और नीतियों पर भारत समेत किसी भी देश में सरकारें बनी ही नहीं। तो जिसका हमने कभी परीक्षण और अनुभव ही नहीं किया, उसे कैसे अप्रासंगिक कह दें! गांधीवाद पर आधारित शासन व्यवस्था का परीक्षण देश के किसी छोटे-से इलाक़े में भी नहीं किया गया, जिसके आधार पर आज यह तय होता कि गाँधीवाद प्रासंगिक है या नहीं। इस बात को न वे सोच-समझ पा रहे हैं, जो पूँजीवाद में मस्त हैं और न वे, जो पूँजीवाद से पस्त हैं।

होना तो यह चाहिए था कि विनोबा की तरह दूरदर्शी और कर्मठ तथा विराट व्यक्तित्व वाले उनके कुछ और अनुयायी देश-विदेश में होते, जो गाँधीवाद को शासन-व्यवस्थाओं में ले आते। हमारे देश की संस्कृतियां और परम्पराएं महान रही हैं। हमारे राजवंशों का इतिहास, वेद, पुराण और सामंतवादी मूल्य इतने बड़े निकले कि गाँधीवाद मानो उनके आगे लघु पड़ गया। भ्रमग्रस्त हमने पूँजीवादी समाजवाद को अपना लिया कि इससे देश का आर्थिक विकास तेज़ी से होगा और जनता आर्थिक रूप से मज़बूत होगी। जब इससे देश सुखी और समृद्ध नहीं हुआ तो समाजवाद को भी हटाकर हम शुद्ध रूप से पूँजीवादी हो गए, लेकिन हमारे इन पैंतरों से पूरे देश में सुख-समृद्धि तो आयी नहीं, अलबत्ता थोड़े से लोग बेहद धनवान हुए और शेष लोग आर्थिक असमानता के शिकार हुए। गाँधी जी का आख़िरी व्यक्ति आज भी मोहताजी का जीवन जी रहा है। वह महीने के पाँच किलो अनाज पर राम-राम कर रहा है। पर वह राम-राज उससे बहुत दूर है, जिसका सपना महात्मा गाँधी उसे दिखा गये थे।

एक समय था, जब भारत के बहुत से इलाक़े बेहद पिछड़े थे, जिनमें ग़रीब ग्रामीण और आदिवासी रहते थे। पूरे देश में नहीं तो इन इलाक़ों में से कुछ इलाक़ों में ही सही, अगर गाँधीवादी मॉडल चलाया गया होता तो इसी के साथ गाँधीवाद की प्रासंगिकता का परीक्षण हो गया होता। मेरा मानना है कि वह अवश्य सफल होता। मुझे तो लगता है कि जानबूझकर ये परीक्षण इसलिए नहीं होने दिया गया कि इससे भारत की प्रभुत्ववादी ताक़तें प्रभावित और संकटग्रस्त होतीं।

हाँ, विनोबा भावे जैसे गाँधी के विशिष्ट अनुयायी यदि विदेशों में होते, ख़ासकर अफ्रीका में, जिसके एक हिस्से में गाँधी जी ने सफल आन्दोलन करके पूरी दुनिया को चकित कर दिया था, तो उनकी सक्रियता से ग़ुलामी, अशिक्षा और गृह युद्ध में फँसे किसी या कई देशों में गाँधीवादी मॉडल की कल्याणकारी सरकारें अस्तित्व में आ सकती थीं। फिर संसार के लिए यह मॉडल चुनौती बनता या असफल होता, पर जो भी होता, हम उसके साक्षी होते और उस साक्षात्कार के आधार पर यह तय होता कि गाँधीवाद प्रासंगिक है अथवा नहीं!

आज भी हमें ऐसे इलाक़े ढूँढ़ने चाहिए, जहाँ हम गाँधीवादी मॉडल लागू करके यह परीक्षण कर सकें कि व्यावहारिक रूप से गाँधीवाद कितना सफल या असफल है। गाँधी जी का जीवन सत्य के प्रयोगों का था, लेकिन उनके प्रयोगों का हमने अपनी तरफ़ से कोई प्रयोग नहीं किया और बिना प्रयोग के ही इस निष्कर्ष पर आ पहुँचे हैं कि गाँधीवादी मॉडल अप्रयोग्य और अप्रासंगिक है। यह गाँधी विचार-दर्शन के प्रति हमारा अन्यायपूर्ण और नासमझ रवैया है। क्या यह ठीक होगा, बदलेगा? मैं तो यह पूछता हूँ।

-केशव शरण

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