गुमस्तों का गांव कटरांव की कहानी

आज आपको चंपारण के ऐसे अद्भुत गांव की कहानी सुनाता हूं, जहां के लोग आज तक कभी किसी कोर्ट या पुलिस थाने नहीं गये। यह अपने आप में केसा अनोखा प्रतिमान है कि इस गाँव के लोग कभी किसी मुक़दमे के चक्कर में पड़े ही नहीं। ऐसा नही है कि इस गाँव मे कभी कोई विवाद नहीं हुआ, पर विवाद के निपटारे के लिए यहाँ एक अलग ही पद्धति या परंपरा है, जिसका पालन यहाँ के लोग सदियों से करते आ रहे हैं। यह गाँव है बेतिया जिले के गौनाहा प्रखंड की जमुनिया पंचायत का ‘कटरांव’। नरकटिया-गंज-भिखनाथोड़ी मुख्य मार्ग पर ठीक रोड के किनारे अवस्थित है यह छोटा-सा गाँव, जहाँ थारू जनजाति के लगभग 100 परिवार रहते हैं। कुछेक मुस्लिम परिवार और कुछ सैंथवार समाज के लोग भी इस गाँव में रहते हैं।


थारू जनजाति इस जिले के तराई क्षेत्र में पायी जाती है, जो बहुत ही ईमानदार और मेहनती कौम है । इस क्षेत्र में लोगों का वर्गीकरण भी ‘थारुआन’ और ‘बजिआन’ के रूप में है। तराई वाले थारू लोगों का क्षेत्र थरुहट है, इसलिए वहाँ के लोग थारुआन कहलाए, शेष वज्जि प्रदेश के लोग ‘बजिआन’ कहलाये। ब्रिटिश जमाने में थारू लोगों का मुख्य काम था जंगल से लकड़ी (मुख्यत: जलावन की) लाना और बसावट वाले क्षेत्रों और शहरों में बेचना। उस जमाने में ब्रिटिश अफसरों ने प्रत्येक थारू गाँव में गाँव के ही एक समझदार व्यक्ति को ‘गुमस्ता’ के रूप में बहाल किया, जिसकी अनुशंसा के आधार पर ही गाँव के लोगों को जंगल से लकड़ी लाने का परमिट मिलता था।


कालांतर में ‘गुमस्ता’ का पद एक संस्थागत व्यवस्था के रूप में विकसित हुआ और थारू समाज के लोग अपने गाँव के हर विवाद को आपसी सहमति से गुमस्ता के निर्णय को सहर्ष मानकर सुलझा लेते थे। गुमस्ता भी बहुत ही लोकतांत्रिक तरीके से समाज की सहमति से और अपनी सूझबूझ से गाँव के मामलों को सुलझा लेता था। लोगों को थाना, कोर्ट जाने की आवश्यकता नही होती थी। कालांतर में अधिकांश गुमस्ता वंशानुगत होने लगे, पर लोग जब चाहते, सहमति से गुमस्ता को बदल दिया करते।


थारू समाज के सभी गाँवों में आज भी गुमस्ता होते हैं, जिनके पास लोग पंचायत के लिए जाते हैं, परंतु पंचायती राज की संस्थाओं यथा वार्ड, पंच, सरपंच, मुखिया आदि के प्रभाव/कुप्रभाव में उनकी यह परम्परागत संस्था समय के साथ कमजोर होती गई और लोग अपने विवाद के समाधान हेतु थाना, कोर्ट जाने लगे। पर ऐसे दौर में भी यह गाँव ‘कटरांव’ अपने आप में एक मिसाल है, जो आज भी परम्परागत रूप से चली आ रही गुमस्ता की लोकतांत्रिक और सहमति आधारित व्यवस्था पर अटूट भरोसा रखता है और गाँव का विवाद कभी गाँव से बाहर नहीं ले जाता।


इस गाँव के वर्तमान गुमस्ता हैं विनय कुमार गौरव, जिनके दादा और पिता जी भी इस गाँव के गुमस्ता रहे और आज भी इस गाँव के लोग इस तीसरी पीढ़ी पर भी वैसे ही भरोसा करते हैं। विनय कहते हैं कि मैं चाहता हूँ कि कुछ अपना काम करूँ, लेकिन गाँव की जिम्मेदारी से बंधा महसूस करता हूँ और दादा जी तथा पिता जी की विरासत का निर्वहन कर रहा हूँ।


इसलिए यहाँ के पंच (पंचायती व्यवस्था से निर्विरोध निर्वाचित) गंगा विष्णु महतो कहते हैं कि यहाँ का चुनाव भी हमलोग आपसी सहमति से तय करके निर्विरोध ही जीतते आ रहे हैं। विष्णु दुबारा निर्विरोध जीते हैं और गाँव के लोग इस बार भी इनके नाम पर सर्वसम्मति रखते हैं। मैंने इनसे पूछा कि मैं अंचल अधिकारी हूँ, दिन भर में जमीन के सैकड़ों विवाद मेरे पास आते हैं, आपके गाँव में जमीन के विवाद का निपटारा कैसे होता है? इसके जवाब में वे मुस्कुरा कर कहते हैं, ‘विवाद का क्या है? कागज में जिसका नाम होगा, उसी का दावा मान्य होगा। हम लोग आपस में मिलकर सब तय कर लेते हैं। मैं सोच रहा था कि काश हर जगह के लोग इतने सरल और सहज होते तो कितना आसान होता जमीन का विवाद सुलझाना।


गंगा विष्णु महतो के पूर्व इस गाँव के सरपंच रहे बमभोला महतो गाँव में ही एक छोटी-सी किराने की दुकान चलाते हैं और इनकी पत्नी दुर्गा, जो बहुत ही जीवट की महिला हैं, ने इस गाँव में एक काम शुरू किया, जो आज इस गाँव की महिलाओं के लिए एक मिसाल है। दुर्गा अपने साथ 5-6 महिलाओं की टीम बनाकर शादी, भोज या किसी भी तरह के पारिवारिक आयोजन में उस घर का सारा काम संभाल लेती हैं। प्रतिदिन की मजदूरी 500/- प्रति महिला लेती हैं। शुरू में इनके काम की लोग आलोचना करते थे कि दुर्गा दूसरे के घर का जूठा माँजती है पर धीरे-धीरे इनके काम को सराहना मिलने लगी और गाँव की अन्य महिलाएं भी ऐसे काम करने लगीं और देखते-देखते इस गाँव में समृद्धि आ गई। आज ये महिलाएं बिहार के सभी जिलों में जाती हैं और सफलतापूर्वक आयोजक के सारे काम संभाल लेती हैं। आज के आधुनिक ‘इवेंट मैनेजमेंट’ की तरह का ही ये एक नवाचार है, जिसे मेजबान का ‘घरेलू मैनेजमेंट’ भी कह सकते हैं।


दुर्गा ने इस गाँव में एक नए तरह के काम की शुरुआत करके सभी महिलाओं के लिए एक मार्ग प्रशस्त किया है। आज दुर्गा का एक लड़का उपेंद्र बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से इंग्लिश में एमए कर रहा है और बेटी सविता बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से ही हिंदी साहित्य में ऑनर्स कर रही है। घर पर ही सविता से मुलाकात हुई। मैंने पूछा कि कोई उपन्यास जो हाल में पढ़ा हो, उसके बारे में बताओ तो उसने गोदान की अद्भुत व्याख्या की, मैं हतप्रभ रह गया। दुर्गा की आंखों में हर्ष के आँसू थे। वह चाहती है कि उसके बच्चे प्रोफेसर बनें और गर्व से कहती है कि मैंने एक- एक पैसा जोड़कर बच्चों को पढ़ाने के लिए बाहर भेजा। वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने कहा कि इस गाँव से एक और लड़का, जिसका नाम अम्बरजीत है, मुम्बई में एसबीआई में काम करता है। हाल के दिनों में शिक्षा को लेकर इस गाँव में गज़ब की जागरूकता फैली है। सभी अपने अपने बच्चों को स्कूल भेज रहे हैं।


गाँव घूमने के क्रम में विनय ने एक घर दिखाया, जो चम्पा देवी का था। जब मैं फोटो लेने लगा तो, वे शरमा गयीं, पर जब सहज हुईं तो बताया कि पिछले साल उस समय के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय इस गाँव की चर्चा सुनकर जब आये तो इनके घर में रोटी, नमक और मिर्च खाये और इनके घर में रखे जांता-चक्की को भी चलाया। गर्व और उत्सुकता से चम्पा देवी ने अपने घर में गड़ी जांता-चक्की दिखाया। इनका घर मिट्टी का था, पर सफाई इतने आला दर्जे की थी कि लगा, जैसे किसी मंदिर में आ गये हों।


गाँव के लोगों ने आपस मे चन्दा मिलाकर हनुमान जी का एक छोटा-सा मंदिर बनवाया है। ईमानदारी, लोकतांत्रिक व पारदर्शी व्यवहार की मिसाल देखिए कि इन्होंने मंदिर में लगी कुल लागत को भी इस पर पेंट किया हुआ है, मंदिर निर्माण लागत खर्च – 49,489/-। इस गाँव मे मैंने थोड़ा-सा वक्त बिताया लेकिन सीखने को बहुत कुछ मिला। आदर्श गांव की जो परिकल्पना हो सकती है, यहाँ साकार दिखी। काश, अन्य गाँव भी ऐसे ही होते!

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