लोकतंत्र में कम हो रही आदिवासियों की आस्था

ग्रीन हब सेंट्रल इंडिया का भोपाल में पहला फ़िल्म फेस्टिवल

16 और 17 जुलाई को भोपाल के रवीन्द्र भवन में ग्रीन हब सेंट्रल इंडिया फ़ेलोशिप प्रोग्राम के पहले फ़िल्म फेस्टिवल का आयोजन किया गया. इसमें ग्रीन हब सेंट्रल इंडिया के पहले बैच के 17 प्रशिक्षुओं की फिल्में दिखाई गईं. इनमे से अधिकतर प्रशिक्षु ग्रामीण, आदिवासी और अन्य वंचित समुदाय से थे. इनके लिए यह पहला मौका था, जब वे कैमरा हाथ में पकड़ रहे थे. जैव विविधता और पारंपरिक तथा प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के काम में ग्रामीण और आदिवासी युवाओं को शामिल करना, सशक्त बनाना और उन्हें डिजिटल रूप से लैस करना ग्रीन हब का उद्देश्य है.
सबसे पहले झारखंड में कार्यरत एकास्था फाउंडेशन की प्रस्तुती हुई. एकास्था फाउंडेशन बेदिया समुदाय के साथ रोजगार जैसे मुद्दों पर काम करता है. उनके इसी काम पर बनी फिल्म ‘एकास्था: जन और जंगल’ पहली फ़िल्म थी, जिसकी फेस्टिवल में स्क्रीनिंग हुई.

हाथी और मनुष्य के बीच के संघर्ष को काफी संजीदगी से पेश किया फ़िल्म ‘गज ढूंढ़ रहे गलियारा’ ने. फ़िल्म का निर्देशन झारखंड के साहेबराम और नरेंद्र ने किया. झारखंड में बीते 11 सालों में 800 लोगों की मौत हाथियों के कारण हुई है, वहीं बीते आठ सालों में करीब 60 हाथियों ने भी अपनी जान गंवाई है। फ़िल्म इस समस्या की जड़ तक पहुंचने की कोशिश करती है. वनों की बेतहाशा कटाई और अंधाधुंध माइनिंग के कारण हाथियों का आवास नष्ट हो रहा है, इसके कारण मानव एवं हाथी के बीच टकराव बढ़ रहा है।

आरती सिंह द्वारा निर्देशित फ़िल्म ‘किसान हूँ, निडर हूँ’ ने काफी प्रभावशाली तरीके से देश में महिला कृषि श्रमिकों की समस्या का चित्रण किया. कृषि अर्थव्यवस्था में आज महिलाओं की बड़ी भूमिका है, लेकिन उनके काम पर समाज और सरकारें दोनों सवालिया निशान खड़ा करते हैं. राजस्थान की पृष्ठभूमि पर केंद्रित इस फ़िल्म ने आंकड़ों एवं लोक संगीत का अच्छा इस्तेमाल किया.


एक सत्र का विषय था ‘स्टोरीज़ बिहाइंड ए फिल्म’, जिसमें मशहूर फ़िल्मकार क्रिशेंदु बोस ने भारत में पर्यावरण संरक्षण के पीछे की राजनीति पर चर्चा की. उन्होंने भारत में शेरों के संरक्षण के मुद्दे पर कई सारी डॉक्युमेंट्रीज़ बनाई हैं, उनका मानना है कि शेरों के संरक्षण से ही भारत में वनों का संरक्षण भी हो सकता है. आखरी सत्र में मध्य प्रदेश के मीडिया संस्थान एसपीएस कम्यूनिटी द्वारा निर्मित डाक्यूमेंट्री ‘पी फॉर प्याज, पी फॉर पैसा, पी फॉर पानी’ का प्रदर्शन हुआ. फ़िल्म में दिखाया गया कि कैसे मध्य प्रदेश के नर्मदा घाटी क्षेत्र में प्याज़ की कॉमर्शियल खेती के कारण पानी का अत्यधिक दोहन होने से भूजल स्तर घट रहा है.

दूसरे दिन के पहले सत्र में देवेश सिंह और अजय भूरिया की फिल्म ‘बंजारी’ तथा विजय रामटेक और नरेंद्र पारधी की फ़िल्म ‘उमरिया’ की स्क्रीनिंग हुई. दोनों फिल्में ने बंजारी, शिवनी, उमरिया जैसे कुछ ईको टूरिस्ट्स साइट्स पर चल रहे प्रयासों को दर्शाया. आरती सिंह और अरविंद दोहरे की फ़िल्म ‘पहाड़ से बने पहाड़ी कोरवा’ छत्तीसगढ़ के सरगुजा में पहाड़ी कोरवा समुदाय में शादी की अनूठी परंपरा पर बनी फिल्म है. इसमें समुदाय के खान पान, वेशभूषा और रीति रिवाजों का बेहतरीन चित्रण किया है. फ़िल्म के माध्यम से कोरवा जनजाति में लैंगिक समानता की बात भी पता चली.

फेस्टिवल में पूर्वोत्तर के प्रशिक्षुओं डेचिन और पेम्बा की फ़िल्म ‘ब्लैक नेक क्रेन’ का प्रदर्शन किया गया. ये दोनों अरुणाचल प्रदेश के रहने वाले हैं और उनकी फिल्म ने बालू माइनिंग के कारण अरुणाचल प्रदेश में ब्लैक नेक क्रेन के विलुप्त होने की समस्या को उजागर किया. स्थानीय समुदाय इसे पवित्र मानता रहा है, लेकिन आज बढ़ते लालच और वैकल्पिक रोजगार के अभाव में लोग बालू की माइनिंग को मजबूर हैं. फ़िल्म बताती है कि प्रकृति संरक्षण के साथ समुदाय को वैकल्पिक रोजगार से जोड़ने की भी जरूरत है, नही तो समुदाय माइनिंग को मजबूर होगा. आखरी दिन भी विभिन्न मुद्दे आधारित बेहतरीन फिल्मो का प्रदर्शन हुआ. इनमें छत्तीसगढ़ में कोरोना काल में मनरेगा योजना के सफल निष्पादन पर बनी फ़िल्म ‘हर हाथ में आमदनी’, ‘गांव में पानी’ और ‘बम’ थी. ‘बम’ में महाराष्ट्र के मेलघाट में एक नवाचार के बारे में बताया गया. इससे पानी गर्म करने के लिए जंगल की लकड़ियों की कम ज़रूरत पडती है.

फेस्टिवल के समापन संबोधन में मशहूर सोशल एन्थ्रोपोलोजिस्ट डॉ एमए कलाम ने कहा कि इस फेस्टिवल में ट्रेनिंग का रिजल्ट सामने आ रहा है. उन्होंने कहा कि बच्चों ने प्रतिकूल परिस्थितियों में बेहतरीन फिल्में बनाईं. फेस्टिवल का अनुभव शानदार रहा और देश भर के विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों को नज़दीक से देखने समझने का मौका मिला. कार्यक्रम के अंत में पहले बैच के प्रशिक्षुओं को सर्टिफिकेट प्रदान किया गया.

ग्रीन हब सेंट्रल इंडिया के इस पहले फेस्टिवल ने एक नई लकीर खींची है. आज भारत का 65 प्रतिशत युवा 35 से कम आयु का है. देश के सबसे गरीब इलाकों से आए इन युवाओं की फिल्मों ने साबित किया कि ग्रामीण, आदिवासी बच्चों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है. अच्छा अवसर मिले तो वे भी नया मुकाम पा सकते है. उम्मीद है कि आने वाले वक्त में ये युवा समाज की दशा को समझने और दिशा देने में कुशल नेतृत्व प्रदान कर पाएंगे. इससे पहले फेस्टिवल का उद्घाटन मशहूर भाषाविद पदमश्री जीएन डेवी ने किया. मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी फेस्टिवल में शामिल हुए. विख्यात अर्थशास्त्री मिहिर शाह ने बताया कि विकास के मापदंड पर आदिवासी सबसे निचले पायदान पर हैं. दुख की बात है कि सरकार उनकी बात सुनती नहीं है, इसलिए उनकी लोकतंत्र में आस्था कम हो रही है।

–विकास कुमार

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