वाहिनी मित्र मिलन का आयोजन इस बार अहिंसा एवं शांतिमय संघर्ष की प्रयोगभूमि बोधगया में 30,31 दिसम्बर एवं 1 जनवरी 2022 को सम्पन्न होने वाला है. मित्र मिलन में देश भर के साथी इकट्ठा होंगे और वर्तमान राष्ट्रीय परिस्थितियों पर चर्चा कर, भविष्य के कार्यक्रमों की रूपरेखा तय करेंगे. मित्र मिलन में चर्चा के लिए ड्राफ्टिंग कमेटी की ओर से मंथन ने एक प्रस्ताव तैयार किया है, जिसे चर्चा के लिए प्रस्तुत किया जाएगा. इसे आपकी टिप्पणियों और सुझावों के लिए प्रसारित किया जा रहा है.
ठीक 3 साल बाद हम वाहिनी मित्र फिर एक साथ जुटे हैं। इस बार हम सब उस जगह जुटे हैं, जहाँ से वाहिनी मित्र मिलन की यात्रा शुरू हुई थी। हम सब बुद्ध की बोध भूमि पर महिला स्वामित्व हासिल करने वाली ऐतिहासिक संघर्ष की धरती पर मिल रहे हैं। फिर से एक नये इतिहास की नींव बन सकेगी, यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। हम सब फिर से परिस्थिति का आकलन करेंगे और आगे की दिशाओं का निर्धारण करेंगे। पुरी में आयोजित पिछले मित्र मिलन में हम सबने तत्कालीन केंद्रीय सरकार के द्वारा जारी विनाश लीला का आकलन किया था और 2019 के चुनाव में उसे परास्त करने की भूमिका तय की थी। तमाम कोशिशों के बावजूद उस भूमिका में हम सब असफल रहे और भाजपा सरकार 2014 के मुकाबले ज्यादा बड़े बहुमत से केंद्र पर काबिज हुई। जाहिर है, हमें और भी ज्यादा सटीक तरीके से विश्लेषण करना पड़ेगा, और भी ज्यादा प्रभावशाली तरीके से जनता के बीच अभियान चलाना होगा और जनमानस को अच्छी तरह समझते हुए मोदी सरकार के खिलाफ जनमत बनाना होगा।
इन सालों में बहुत सारी घटनाएं हुईं। इन पर हमें गौर करने की जरूरत है। मोदी सरकार का फासिस्ट एजेन्डा चलता रहा। जम्मू कश्मीर की स्वायत्तता को कुचलकर उसे पूरी तरह आतंक के साए में जीने को मजबूर रखा गया। सारे संवैधानिक और प्रशासनिक संस्थानों को पूरी तरह अपनी मर्जी का गुलाम बनाए रखने की साजिशें चलती रहीं। लोकसभा में कानूनों को पारित कर करवाने की निरंकुश शैली अपनाई गई। राज्यसभा में तो अल्पमत को बहुमत बताने का बहुत ही खतरनाक हथकंडा शुरू किया गया। मतगणना की माँग को अमान्य कर ध्वनिमत से फैसला करने का सिलसिला चल पड़ा है। इतना ही नहीं, भी विरोध की भारी पड़ती , बहुमत बताती आवाज को नकार कर सत्ता पक्ष की राय का फर्जी बहुमत ध्वनिमत से तय किया जा रहा है। विकास के नाम पर सारे संसाधनों और सार्वजनिक संपत्ति को अपने दुलारे पूँजीपतियों के हवाले करने तथा हिन्दू वर्चस्व की राजनीति के नाम पर पूरी व्यवस्था को कुछ जातिवादी तत्वों के हाथ सौंप देने की प्रक्रिया लगातार चलाई जा रही है। ऐसी ही अनेकानेक कारगुजारियाँ लगातार अबाध तौर पर जारी हैं।
केंद्र सरकार का शायद ही ऐसा कोई कदम हो जो अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के खिलाफ न हो। शायद ही ऐसा कोई कदम हो जो प्रांतों एवं अन्य संवैधानिक संस्थाओं के अधिकारों को प्रधानमंत्री कार्यालय और दो तीन मंत्रियों की मनमानी के अधीन न करता हो । अब मोदी सरकार की छवि में सिलवटें और खरोंचें आने लगी हैं। लगभग 2 साल से चल रही कोरोना महामारी ने इस सरकार की काबिलियत को बेनकाब कर के रख दिया है। प्रारंभिक दिनों में तो वह पूरी तरह से इस महामारी के मुकाबले लाचार और बेबस दिखी। लॉकडाउन का सरकारी फैसला तो फिर से यह बता गया कि मोदी सरकार कोई भी काम पुलिस आतंक के बिना कर ही नहीं सकती। जब लोगों को जीवन की जरूरी चीजें घर घर पहुँचाने की जरूरत थी, तो उसे पूरा किये बिना पूरे देश में कर्फ्यू लगा दिया गया। अरुणाचल और लद्दाख क्षेत्र की भारतीय सीमा में चीन की घुसपैठ पर मोदी सरकार गैरजिम्मेदार और नालायक साबित हुई है। कमजोरी और विफलता छिपाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी लगातार झूठ बोलते रहे हैं।
इन दो सालों में भाजपा खासकर मोदी की अजेयता का जो वातावरण बना था, वह दरकता दिखा है। नोटबंदी और अन्य बहुप्रचारित कदमों के बचाव में कुछ कहने का साहस सरकार में नहीं बचा है। पहले नागरिकों के बीच धार्मिक आधार पर भेदभाव करने वाले सीएए व एनआरसी के विरोध में पूरे देश में उमड़े नागरिक आंदोलन और उसके बाद तीन कृषि विरोधी कानूनों के खिलाफ अभेद्य किसान आंदोलन ने सरकार और संघियों को आत्मरक्षात्मक मुद्रा में ला दिया है। न्यायालय खासकर उच्चतम न्यायालय जो मोदी सरकार के अनुचर की सी भूमिका में दिखने लगा था, अब एक हद तक मोदी सरकार के कार्यकलापों पर ठोस नियंत्रण के आदेश देने लगा है। अमित शाह के चुनाव प्रबंधन का चमत्कार फेल होने लगा है। चुनाव जीतने के लिए पैसों की बौछार और प्रशासन का हथियार भी सब जगह काम नहीं आ रहा है। प. बंगाल जैसे प्रांतों में तो उनका हर दाँव उल्टा पड़ा है। उप्र में हार की आशंका मोदी, शाह, योगी सबको डराने लगी है। फिर भी मुतमइन नहीं हुआ जा सकता कि देश के लोकतंत्र, संविधान और सामाजिक सद्भाव पर मंडराता खतरा अब खत्म होने को है।
कुल मिलाकर 2014 के बाद देश की राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति नकारात्मक दिशा में गई है। आधार कार्ड और बायोमीट्रिक पहचान को जनता के खिलाफ अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके जरिये लोगों को सुविधाओं और जनतांत्रिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। धार्मिक जुटान से मुस्लिमों के कत्लेआम का एलान हो रहा है और भाजपा, संघ तथा मोदी सरकार साजिशी चुप्पी साधे बैठी है। गैरबराबरी, गरीबी और बेरोजगारी बढ़ी है। मानव विकास सूचकांक, महिला अवसर और सुरक्षा विषयक सूचकांक तथा स्वतंत्र पत्रकारिता एवं अभिव्यक्ति के पैमाने पर अपना भारत लगातार बदतर हो रहा है ।
इन हालातों को 2014 के पहले के स्तर पर वापस लाना भी आसान नहीं है। पहले तो उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों में भाजपा के हारने की निश्चित गारंटी नहीं है। 2024 में केंद्र से भाजपा को बेदखल करने के सामने भी कई राजनीतिक जटिलताएँ हैं। इतना ही नहीं, अगर भाजपा उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य और 2024 का केन्द्रीय चुनाव हार भी जाए, तब भी देश के संविधान को, देश के लोकतंत्र को, देश के सामाजिक वातावरण को जो क्षति हुई है, उसको सुधारने का काम विशेष तौर पर करना होगा। इन वर्षों में शासन के संरक्षण से पूंजीवाद की जो आक्रामकता बढ़ी है, जो आर्थिक गैरबराबरी बढ़ी है, मनुवादी जातिवादी ताकतों का जो मनोबल बढ़ा है, जो खुलेआम गुंडागर्दी बढ़ी है, वह अपने आप दुरुस्त नहीं होने वाली है। जो सरकार विकल्प में आएगी, उससे इतनी उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह इन सारी चीजों को वापस पटरी पर पहुंचा देगी। क्योंकि ध्यान दें, इन्हीं राजनीतिक शक्तियों के रहते, इन्हीं राजनीतिक शक्तियों की कमजोरियों के कारण भाजपा को अपना वर्चस्व बनाने का मौका मिला। मोदी सरकार के आधार कार्ड, यूएपीए और एनआईए जैसे हमलों की बुनियाद तो पिछली सरकारों ने ही रची थी और अभी भी इन कदमों की गलती की स्वीकृति तथा उन्हें वापस करने की उनकी मंशा जाहिर नहीं हुई है। एक नये सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक वातावरण और शक्ति के बगैर धार्मिक, फासीवादी, पूँजीवादी बीजों को समाप्त करना, कदमों को रोकना संभव नहीं। इस कारण हमारी धारा सहित सभी जनपक्षीय ताकतों के सामने कठिन चुनौती कायम है। हम इन चुनौतियों को समझने के लिए, इन चुनौतियों को अच्छी तरह समझ कर अपनी भूमिका तय करने के लिए यहाँ जुटे हैं। हमें खुद से यह उम्मीद , यह संकल्प तो करना ही चाहिए कि देश और समाज के विध्वंस बनाम देश और समाज के नवनिर्माण के प्रस्तुत संघर्ष में हम लोकतंत्र, न्याय और समता के आधार पर नवनिर्माण में अपनी भूमिका निभाने की दिशा नये सिरे से फिर से तय करेंगे।
तो आयें, चुनौतियों को एक एक कर चिन्हित करते चलें।
देश, नागरिकता और न्याय की नींव पर चोट
इस सरकार ने सबसे बड़ा हमला देश और नागरिकता की अवधारणा पर किया है। देश, देश में रहने वाले सारे लोगों का है। देश के सारे नागरिक बराबर हैं, सरकार से और आपस में बराबर बरताव के हकदार हैं। इस बुनियादी मान्यता को यह सरकार तोड़ रही है। शासन और पुलिस प्रशासन न्याय के बुनियादी मूल्यों को ही उलट रहा है। गिरफ्तारी, जमानत, रिहाई सारे मामलों में पुरानी प्रक्रियाओं और मान्यताओं को तोड़ा जा रहा है। सरकार से असहमति को राष्ट्रविरोध कहा जा रहा है। कुछ विचारों और समुदायों को अपराधी की तरह बरता जा रहा है। सरकार की पूरी कार्यशैली और सहयोगियों के बयान यही एलान करते हैं कि यह देश हिन्दुओं का ज्यादा है, अन्य मजहबों में आस्था वालों का कम। भाजपाइयों और संघियों का ज्यादा है, औरों का कम। अन्य लोगों को हिन्दुओं की मेहरबानी के मुताबिक रहना है। हम जानते हैं कि हिन्दुओं में कुछ लोग श्रेष्ठ होते हैं, बाकी सामान्य और हीन। कुछ लोग महत्वपूर्ण होते हैं, बाकी तुच्छ एवं अवांछित। इस कारण देश पर ज्यादा, कम हक और विषम नागरिकता की मान्यता की सीधी निष्पति यह है कि देश पर, शासन पर, दौलत पर, फैसलों पर, सम्मान पर मुट्ठी भर सवर्णों, पूँजीपतियों और उनके गिरोह-गुर्गों का ही कब्जा और वर्चस्व होना चाहिए। इस विचार और चलन को खत्म करना होगा।
बढ़ती मानवता विरोधी आर्थिक गैरबराबरी
कुछ लोगों के मानवता विरोधी वर्चस्व की बानगी पहले से ही हर जगह देखने को मिलती रही है, किन्तु कोरोना काल में इसका फैलाव बेहद तेजी से हुआ है, आमदनी और दौलत पर कब्जे के ताजे आँकड़े ये बताते हैं। भारत आर्थिक विषमता के शिखर देशों में शामिल है। भारत में 2016 में सिर्फ 833 परिवारों के पास देश का 64% संसाधन था। 2014 से 2018 के बीच 10 पूँजीपतियों की पूँजी में भारी उछाल आया। 2020 में 10,677 किसानों तथा 11716 व्यापारियों ने खुदकुशी की। 2014 से 2020 के बीच 35000 भारतीय उद्यमियों ने देश छोड़ा। पिछले एक वर्ष में अडाणी की सम्पत्ति में 400% की बढ़ोत्तरी हुई। मुकेश अम्बानी समेत 19 अरबपतियों ने कुल मिलाकर जितना कमाया, उससे ज्यादा अकेले गौतम अडाणी ने कमाई की। भारत में मध्य वर्ग के आकार में एक तिहाई की सिकुड़न हुई। 3 करोड़ से ज्यादा लोग गिरकर निम्न आय वर्ग और गरीब श्रेणी में आ गये। विश्व में खरबपतियों की संख्या के मामले में भारत ऊपर से तीसरे स्थान पर है। दुनिया भर में सार्वजनिक सम्पति में कमी आयी है। 2020 में निजी सम्पत्ति में 560% की वृद्धि हुई है। भारत में महिला श्रम की आय का हिस्सा 18% है, यह अन्य एशियाई देशों से भी कम है।
पहले गरीबों को भूमि देने के लिए संघर्षों का दबदबा कायम था। दबाव में आकर सरकारों को गरीबों को भूमि बाँटना पड़ता था। हमारा बोधगया संघर्ष भी भूमि के केन्द्रीकरण को तोड़ने के लिए था। आज गाँवों और किसानों की जमीन को लूटकर पूँजीपतियों को देने के लिए कानून बनाये जा रहे हैं। विषमता कम होते होते खत्म हो जाए, आमदनी और दौलत में 1 और 10 से ज्यादा का अनुपात न हो, ऐसे सभी सपने लगातार असंभव से होते जा रहे हैं। गरीबी और अमीरी के खिलाफ संघर्ष, गरीबों के व्यापक विषमता विरोधी वर्ग सत्याग्रह की जरूरत आज पिछले दिनों से ज्यादा है, पर हम सबका ध्यान उस पर पहले से काफी कम है।
दम तोड़ता स्वास्थ्य एवं शिक्षा तंत्र
स्वास्थ्य और शिक्षा तंत्र की बदहाली कोरोना काल में पूरी तरह उजागर हो गयी है। यूँ तो इस कोरोना से पूरी दुनिया तबाह हुई, लेकिन भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य पर इसका असर और जगहों से ज्यादा गहरा रहा। पूँजीवादी देशों में भी निजी अस्पतालों को सरकारों ने अपने नियंत्रण में रखकर लोगों को चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराईं। भारत में नोटबंदी और लॉकडाउन का फैसला लेने वाली सरकार निजी अस्पतालों की खुली लूट खुली आँखों से देखती ही नहीं रही, उस लूट में एक तरह से मदद करती रही। सरकारी खरीद के टीकों का 25% निजी संस्थानों को आवंटित कर दिया गया। कई अस्पतालों ने प्रति बेड प्रति दिन एक लाख रु. जैसी ऊँची दरें वसूलीं, उस पर भी सरकारों ने कोई कदम नहीं उठाया। ऐसे मानवीय संकट के वक्त भी पूरी दुनिया में स्वास्थ्यगत विषमता हावी रही। अनेक गरीब देश चिकित्सा और टीकों की घनघोर कमी से तबाह रहे, दूसरी ओर टीकों की बरबादी हुई। टीकों के वितरण में बराबरी हो सके, इस न्यूनतम मानवीय दायित्व को भी धनी देशों ने नकार दिया। आयुष्मान भारत की महत्वाकांक्षी योजना भी कोरोना से निपटने में पूरी तरह विफल रही। इस योजना से निजी अस्पतालों और कारपोरेट्स को ही ज्यादा लाभ हुआ। इसी तरह मुनाफापरस्त शिक्षण संस्थान लॉकडाउन के दिनों का भी शुल्क वसूलने में लगे रहे। इसके लिए ऑनलाइन शिक्षा का अव्यावहारिक तरीका अपनाया। शिक्षा में निजीकरण का बोलबाला होने के कारण बहुत सारे विद्यार्थी तो शिक्षण संस्थानों से ही बाहर हो गये हैं। निजीकरण के कारण हरेक को जरूरी इलाज और सभी की जरूरत तथा चाह के मुताबिक शिक्षा मिलना नामुमकिन हो गया है। आर्थिक और तकनीकी गैरबराबरी के रहते, डिजिटल या ऑनलाइन शिक्षा, शिक्षा को सीमित करने और अशिक्षा को बढा़ने वाली है।
विविधता पर हमला
विविधता एक नैसर्गिक सच्चाई है। दुनिया के हर क्षेत्र, समाज के हर समुदाय, जिंदगी के हर एक पहलू में विविधता का वजूद है। ये विविधताएँ विषमता, भेदभाव या अन्तर्विरोध की द्योतक नहीं हैं। समाज और राजनीति में ऐसी शक्तियां होती हैं, जो विविधता को अवांछित मानती हैं। एकरूपता को ही सप्रयास या बलात कायम करना चाहती हैं। ऐसी शक्तियाँ अपने मूल स्वभाव में एकाधिकारवादी होती हैं, वर्चस्ववादी होती हैं। मोहन भागवत तथा नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चल रहा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा भी ऐसी ही शक्तियां हैं। ये हिन्दू राष्ट्रवाद के नाम पर भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक विविधता को खत्म करने के विध्वंस कर्म में संलग्न हैं। इतना ही नहीं, वे हिन्दू धर्म के अन्दर की विविधता को भी मिटाने पर उतारू हैं। राम को सर्वोच्च देव के रूप में स्थापित करने का प्रयास, सभी पर शाकाहार थोपने का प्रयास खुद में शैव, शाक्त जैसी शाखाओं को समाप्त करने के वैष्णवी वर्चस्ववाद की ही अभिव्यक्ति है। यह शायद पूरा सच न हो, फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि संघी हिन्दुत्व की धारा में आंतरिक उठापटक की प्रक्रिया जारी है और वैष्णवी धारा ज्यादा मुखर और आक्रामक है। ऐसे परिदृश्य में सारी सकारात्मक विविधताओं की अस्तित्वरक्षा और सहअस्तित्वमूलक स्वायत्तता एक बड़ी सामयिक चुनौती है। इस चुनौती पर खरा उतरने के लिए हम सबको गहरी संवेदनशीलता और लोकतांत्रिक खुलेपन से सारे प्रश्नों और मसलों को देखना होगा। यह नहीं होने पर हम नये और गैरपारंपरिक या परंपराविरोधी रूझानों और समूहों के साथ न्याय नहीं कर पाएँगे। एलजीबीटीक्यू कम्यूनिटी के अधिकारों के प्रश्न, लिव इन जैसे नये चलन के मसले इसी किस्म के हैं। इतना तो न्यूनतम विवेक अपेक्षित है कि हम इन पारस्परिक सहमति के रिश्तों को, ऐसे रिश्तों और दावेदारी वाले समूहों को अपराध और अपराधी मानसिकता से मुक्त रखें। इन्हें भी अपने मन और फैसले से जिन्दगी जीने का हकदार मानें। नहीं तो हम सब भी कमोबेश उन्हीं जालिमों की कतार में होंगे जो प्रेमविवाह, अन्तर्जातीय, अन्तर्धार्मिक विवाह, सगोत्र विवाह को इतना बड़ा अपराध मानते हैं कि कानून अपने हाथ में लेकर हत्यारे बनने में भी परहेज नहीं करते। डायन होने की मान्यता के असर में डायन हत्या को वाजिब ठहराते हैं या उसका विरोध नहीं करते। वस्त्रों और फैशन यानी पहनावे की भिन्नता को छेड़खानी और जोर जबरदस्ती का स्वाभाविक कारक मानने लगते हैं।
गाँधी, अम्बेडकर दोनों की विरोधी सत्ता
मौजूदा शासन घोर पाखंडी और असहिष्णु है। एक तरफ गांधी और अम्बेडकर को स्मरण और नमन करता है। दूसरी ओर उसके समर्थक गोडसे का गुणगान करते हैं और वे कुछ नहीं कहते। गांधीवादियों और गांधीवादी संस्थानों पर हमला करते हैं। गाँधी के संस्थानों पर कब्जा जमाते हैं, साबरमती आश्रम जैसी विरासत को विकृत करते हैं। अम्बेडकर की प्रतिमाओं को क्षत विक्षत करते हैं, दावेदार दलितों पर हमला करते हैं।
प्रकृतिनाशी सत्ता
यूँ तो विकास के नाम पर प्रकृति पर हमला और पर्यावरण का ध्वंस लम्बे समय से चला आ रहा है, पर इस सरकार ने तो इसमें इजाफा ही किया है। इस दौर में प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक सम्पदा का निजी सम्पत्ति के रूप में हस्तांतरण हो रहा है। प्राकृतिक संसाधनों की हिफाजत और उन पर जन हक बहाल करने की लड़ाई पहले से ज्यादा जटिल और चुनौतीपूर्ण हो गयी है। अब तो तरंगों, हवा, ध्वनि, रोशनी जैसे संसाधनों पर भी दूर से ही कब्जा और संचालन चल रहा है। अबतक सबके लिए खुले और मुफ्त तथा सीधे हाथों की पकड़ में न आने वाले इन संसाधनों पर विकेन्द्रित अधिकार, ग्राम सभा यानी प्रत्यक्ष जनसमुदाय के अधिकार का सिर्फ नारा नहीं, पूरा खाका गढने की जरूरत है। वनाधिकार कानून पर अमल के प्रति सरकारें तनिक भी गंभीर नहीं हैं। खनन प्रभावों को कम करने के लिए जमा होने वाले फंड को लगभग सारे जिलाधिकारी दूसरे मदों में खर्च कर रहे हैं।
डिजिटल तकनीक का हथियार
हर प्रक्रिया को डिजिटल बनाने की तैयारी है। आभासी दुनिया सीधी और ठोस मानवीय सम्पर्क की दुनिया पर हावी हो रही है। यह सिर्फ स्वाभाविक विकासक्रम में नहीं हो रहा। इसे ऐसा पूँजी और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग जान बूझकर बना रहे हैं। इसके साथ अमल में लायी जाने वाली जरूरी जिम्मेवारियों के प्रति वे नियोजित उपेक्षा बरत रहे हैं। यह जनता को छलने, जनता को दूर से ही नियंत्रित करने, जनता से बचने और दूर रहने के एक अचूक हथियार के रूप में इस्तेमाल में लाया जा रहा है। पेगासस इसकी एक बानगी भर है। आभासी दुनिया का वर्चस्व मानवीय जीवंतता और संवेदना को खत्म नहीं तो कमजोर तो करता ही है। इंसान को अंक, डिजिटल प्रतीक या यंत्र बनाने और उसे ज्यादा से ज्यादा यंत्रों से नियंत्रित करने के खतरे कितने हैं और इनसे कैसे निपटा जाय, इसे बस नियति के रूप में मंजूर नहीं किया जा सकता. इस पर जितने गहरे चिन्तन की जरूरत है, वह आजतक नहीं हो सका है। कुछ साथी तो इस खतरे के लिए डिजिटल इम्पेरियलिज्म या फासिज्म की शब्दावली का उपयोग भी करते हैं।
चुनौती वैश्विक है
भारत में फासिस्ट कार्यशैली आक्रामक है और उभार पर है। हाल के दिनों में दुनिया के बहुत सारे देशों में भी लोकतंत्र विरोधी, गरीब विरोधी तथा धर्मांध शासन उभरे हैं। अपने समीप म्यांमार और अफगानिस्तान भी इसके उदाहरण हैं। अफगानिस्तान की नयी शासक जमात तो घोर स्त्री विरोधी है, लेकिन कुछ देशों में समाजवादी रुझान के दल भी मजबूत होकर सत्ता तक पहुँचे हैं। कहने का आशय यह है कि आज जो भारतीय चुनौती है, वह भारत की ही नहीं, विश्व स्तर पर घटित होने वाली एक चुनौती का हिस्सा है, वहीँ आज के ध्रुवीकरण में समता और स्वतंत्रता की शक्तियों की जीत की उम्मीदें भी जीवंत बनी हुई हैं।
बुनियादी लड़ाई तो लोकतंत्र की है
इन चुनौतियों का मुकाबला करने और संभावनाओं को साधने का सबसे सही तरीका यही लगता है कि पूरी लड़ाई फासिज्म बनाम लोकतंत्र के नारे के तहत चलायी जाए। लोकतंत्र सिर्फ राजनीतिक नहीं है। लोकतंत्र के आर्थिक, सामाजिक आदि विविध आयाम हैं। लोकतंत्र का संघर्ष व्यापक जनांदोलन बन सके, इसके लिए लोकतंत्र की अवधारणा को आम आदमी की भाषा में गढ़ना, समझाना होगा। यह काम जरूरत भर नहीं हो सका है।
चुनाव सुधार, प्रशासनिक सुधार और उससे भी आगे बढ़कर व्यापक राजनीतिक सुधार लोकतंत्र को जीवंत बनाने के लिए आवश्यक हैं। सभी उम्मीदवारों को समान अवसर, इलेक्टोरल बांड व अन्य दलीय चुनाव निधियों पर रोक, उम्मीदवार निर्धारण में मतदाताओं की भूमिका, एक व्यक्ति की एक से ज्यादा और एक प्रतिनिधित्व के रहते दूसरी उम्मदवारी पर रोक, प्रतिनिधि निगरानी और वापसी की प्रक्रिया जैसी अनेक बातों को लेकर चुनाव सुधार अभियान चलाने की जरूरत है। गाँव और मुहल्लों जैसी छोटी इकाइयों में प्रत्यक्ष लोकतंत्र और उससे उपर जन नियंत्रित प्रातिनिधिक लोकतंत्र हर स्तर पर बन सके, इसे केन्द्र में रखते हुए राजनीतिक सुधार के मसले रचने होंगे। अभी तो औपचारिक अर्थों में भी प्रातिनिधिक यानी जनमतमूलक लोकतंत्र नहीं है। अधिकार संकेन्द्रण और संख्या दोनों स्तर पर नौकरशाही का वर्चस्व है। इसे पलटने की जरूरत है ।
बहुत सटीक विश्लेषण है। आज ज़रूरत इस बात की है कि हम सब इकठ्ठा हों।
अगर आज पूंजीवादी और सांप्रदायिक ताकतें समाज के चिंतन पर काबिज हो गई है तो इसमें कमी उन लोगों को है जो सही सोच रखते हैं। हम लोगों तक हमारी सोच क्यों नहीं पहुंचा पाए? इसका सही आकलन करेंगे तो नई से राह मिलेगी। धन्यवाद।